FAQ's | शंका समाधान (प्रश्न - सवाल, जवाब - उत्तर)

List of Frequently Asked Question/Answers (प्रश्न-उत्तर)

ईश्वर बहुत प्रकार की सहायता देता है। एक तो सामान्य सहायता है, जो सबको दे रखी है। जिसने अच्छे कर्म किये हैं, उसको अच्छा फल, जिसने बुरा किया है, उसको बुरा फल देता है। अपने-अपने कर्मों का फल ईश्वर देता है। ये ईश्वर की सहायता है। स ईश्वर की सहायता के बिना हम स्वयं अकेले अपने कर्मों का फल नहीं ले सकते। भगवान यूँ कहें कि अपना कर्म करो और अपने फल ले लो, मुझे बीच में क्यों चक्कर में डालते हो। क्या आप अपने कर्मों का फल स्वयं ले सकते हो? अपना कैरियर स्वयं बना सकते हो? न हम धरती अपने रहने के लिये बना सकते हैं, न हम स्वयं फल ले सकते। ईश्वर सबको न्यायानुसार सबके कर्मों के हिसाब से फल देते हैं। ये ईश्वर की सामान्य सहायता है जो सबको दी जाती है। स जो विशेष-पुरूषार्थ करता है, उसको ईश्वर विशेष सहायता देते हैं। उसको ईश्वर विशेष आनंद देते हैं, विशेष सुख देते हैं, अंदर से उत्साह बढ़ाते हैं। उसकी बुद्धि बढ़िया बना देते हैं। जैसे- जो विद्यार्थी अच्छी पढ़ाई करता है तो गुरूजी उसको विशेष सहायता देते हैं। उसको अतिरिक्त समय भी देते हैं कि- भई, ये मेहनती आदमी है। ईश्वर भी ज्ञान-विज्ञान बढ़ायेंगे, उत्साह बढ़ायेंगे, बुद्धि बढ़ायेंगे और आनंद देंगे। ये ईश्वर की विशेष सहायता होगी। जो ईश्वर के आदेश का जितना अधिक पालन करेगा, ईश्वर उसको उतनी विशेष सहायता देगें। स सूरज, चाँद, धरती, सितारे, अन्न, औषधि, वनस्पति, साग, फल, फूल, सब्जी, ये सारी चीजें ईश्वर ने बनाकर दे रखी हैं। ये सब ईश्वर की सहायता से हैं। उनके बिना हम कुछ नहीं कर सकते। न खा सकते हैं, न पी सकते हैं। इस प्रकार से ईश्वर हमारी सहायता करते हैं।

आत्मा को किसी ने नहीं बनाया। ईश्वर को भी किसी ने नहीं बनाया, दोनों हमेशा से हैं। स्वयं अपनी सत्ता से हैं। और एक तीसरी वस्तु-प्रकृति भी हमेशा से है। इस प्रकार से ये तीनों वस्तुएँ अनादि हैं। इन तीनों को किसी ने नहीं बनाया।

हाँ। कुत्ते आदि अन्य प्राणियों को भी कर्म करने की चार- पॉच प्रतिशत स्वतन्त्रता है। मुख्य रूप से तो वह भोग योनि है। परन्तु गौण रूप से (थोड़ी सी( कर्म करने की स्वतंत्रता भी है। जैसे- पुलिस वाले कुत्ते को ट्रेनिंग देते हैं, और वो ट्रेन्ड कुत्ते चोरों को पकड़वा देते हैं। यह उनकी चार-पाँच पर्सेन्ट की स्वतंत्रता है और इसका उनको ईनाम मिलता है। अच्छा बढ़िया डबल रोटी, बिस्किट खाने को मिलता है। बढ़िया शैम्पू से नहाते हैं, बढ़िया सुविधाओं में रहते हैं। स आप शांति से अपने रास्ते में जा रहे हैं और एक कुत्ता पीछे से चुप-चाप आता है और आपकी टांग पकड़ लेता है, काट लेता है। तो आप उसकी डंडे से पिटाई करते हैं न। उसने अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया, इसीलिये तो पिटाई हुई। उसने पाप किया, इसीलिए दण्ड मिला। पुलिस के कुत्ते ने चोर को पकड़वाया, पुण्य किया। इसलिए उसको ईनाम मिला। यह है कुत्ते आदि प्राणियों की कर्म करने की दो-चार-पाँच पर्सेन्ट की स्वतंत्रता।

संसार में पूर्ण सुख मानना, यह मानव जीवन की सबसे बड़ी भूल है। यहाँ पूर्ण सुख नहीं है, मगर हम पूर्ण सुख मान बैठे हैं। लोग यहाँ दुनिया में सुख ढूँढ़ते हैं, जो कि बिल्कुल नहीं मिलेगा। लोग दुनिया में न्याय ढूँढ़ते हैं, वो बिल्कुल नहीं मिलेगा। यहाँ तो कदम-कदम पर अन्याय होता है। भयंकर दुख भोगने पड़ते हैं। इसलिये सबसे बड़ी भूल यह मानना है कि- ‘संसार में सुख मिलेगा।’ इस बात को याद रखें और मोक्ष की तैयारी करें। हाँ, मोक्ष में अवश्य पूर्ण सुख मिलेगा। संसार में मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है – भौतिक (प्राकृतिक( सुखों को लक्ष्य बनाना, मोक्ष को लक्ष्य नहीं बनाना। यही हमारे दःुखों का कारण है।

ढाई-तीन घण्टे की नींद तो कम है। एक स्वस्थ वयस्म व्यक्ति को कम से कम 6-7 घण्टे तो अवश्य नींद लेनी चाहिए । अच्छी गहरी नींद आये, इसके लिये तीन काम करें। एक तो दिन में खूब मेहनत करें। शारीरिक, बौ(िक, मानसिक परिश्रम करें ताकि रात को थक जायें। आप अच्छी तरह से थक जायेंगे, तो बढ़िया नींद आएगी। दूसरी बात है कि चिंता (टेंशन( कुछ नहीं करें, नहीं तो नींद नहीं आएगी। तीसरा- सोते समय बिस्तर पर लेटकर कोई चिंतन नहीं करना, कोई विचार नहीं उठाना, कोई योजना नहीं बनानी। अगर इस नियम का पालन करेंगे तो नींद बहुत अच्छी आएगी। और यदि सब विचारों को उठायेंगे, तो आपको नींद पर्याप्त नहीं आयेगी। जो योजना (प्लानिंग( बनानी है, चिंतन-विचार करना है, वह दिन में करो। स्त्री को मुँह-हाथ धोकर, सोने से पूर्व बिस्तर पर बैठकर, पाँच-दस मिनट ईश्वर का ध्यान करो। उसके बाद तीन काम करने से बढ़िया नींद आएगी। पहला काम- लाइट बंद, दूसरा काम- आँख बंद, तीसरा काम- विचार बंद। ये तीन काम करो, बढ़िया नींद आएगी। विचार बंद करने के लिये उपाय है, ‘गायत्री मंत्र’ का पाठ। बिस्तर पर आप लेटकर, आँख बंद रखें। जब तक नींद न आये, तब तक गायत्री मंत्र का पाठ चालू रखें। ईश्वर का ही स्मरण करें। आपको अच्छी नींद आएगी।

व्यक्ति शरीर के बंधन में होने पर शरीर, इन्द्रियों की सहायता से सारे काम करता है। मोक्ष में ये शरीर, इन्द्रियाँ नहीं रहते। मोक्ष में प्रकृति के बने साधन नहीं होते। वहाँ तो ईश्वर की शक्ति का सहयोग मिलता है। ईश्वर की शक्ति से मुक्त आत्मायें सब जगह घूमती हैं, देखती हैं, सुनती हैं, बातें करती हैं। जो भी मुक्ति का आनंद होता है, वो ईश्वर की शक्ति से भोगती हैं। मुक्त आत्मा, मुक्त आत्मा से बात करेगी, हमसे नहीं। और हम बु( आत्माएँ आपस में बात करेंगे, मुक्तात्माओं से नहीं । और हम बु( आत्माएँ आपस में बात करेंगे, मुक्तात्माओं से नहीं ।

मजाक बिल्कुल नहीं उड़ाना चाहिये। पर सत्य कहने में कोई आपत्ति नहीं। अगर कोई व्यक्ति गलती कर रहा है, तो उसकी गलती बताने में कोई आपत्ति नहीं है। उसकी गलती (दोष( बतायेंगे। अपनी अच्छाई बतायेंगे। लोगों को उस बुराई से बचायेंगे। लोगों को भटकने से बचाने के लिये, अगर हम किसी का दोष बताते हैं, तो कोई आपत्ति नहीं। और मजाक उड़ाने के लिये खण्डन करते हैं, तो वो गलत है, अपराध है। ऐसा नहीं करना चाहिये । ऐसा करने से हम श्रेष्ठ नहीं कहला सकते ।

पहला उपाय तो यह है कि- सांसारिक जीवन में वापस मत जाओ, यहीं रहो। जब यहाँ शांति से जी रहे हो, तो क्यों जाओ बेकार दुनिया में? वहाँ काम, क्रोध, लोभ, ईष्या, द्वेष आदि सब झंझट हैं। इसलिए एक उपाय तो यह है, कि- ऐसे किसी भी आश्रम में रहो, जहाँ व्यवस्था मिले। यहाँ रहने की गारंटी मेरे अधिकार में नहीं है। अधिकारी हैं, उनसे पूछो, कि यहाँ के नियम क्या हैं? आपकी योग्यता यहाँ रहने की है या नहीं है। वो अधिकारी बतायेंगे। मैंने तो आपको सुझाव दिया, कि यदि ऐसा जीवन अच्छा लगता है, संसार में झंझट होता है, तो वो जीवन छोड़कर किसी भी आश्रम में रहो। जहाँ सुविधा, अनुकूलता हो, वहाँ रहो। दूसरा- यहाँ से खूब तैयारी करके जाओ, खूब संकल्प करके जाओ, कि हम नगर के जीवन में जायेंगे, लेकिन यह छल-कपट नहीं करेंगे। फिर उसके हिसाब से वहाँ मेहनत करो। यहाँ से जब जायेंगे तो कुछ दिन तक तो आपका वो संकल्प टिकेगा और आप ठीक मेहनत करेंगे। शांति से जी लेंगे। कुछ महीने में आपकी बैटरी डाउन हो जाएगी, तो कुछ महीने बाद चार्जिंग के लिये अगले शिविर में फिर आओ और अपनी बैटरी चार्ज करो। फिर वापस जाओ। तीसरा- कुछ महीने या वर्ष (जब तक आपकी सांसारिक जिम्मेदारी पूरी हो जाए, तब तक( शिविरों में आ-आकर वानप्रस्थी बनने की तैयारी करो । जब सांसारिक जिम्मेदारी भी पूरी हो जाए, वानप्रस्थी बनने की योग्यता भी बन जाये, तब वानप्रस्थी बनकर किसी आश्रम में रहना शुरु करो । इस प्रकार से दो-तीन विकल्प हैं, जो आपको ठीक लगे, उसको अपनाओ।

ये समस्याएँ घर-घर में है। बच्चों से पूछो- क्या खाओगे बेटा? तो अधिकांश बच्चे बोलेंगे- आलू। अगर पूछें कि- अच्छा, यह बैगन खा लो। तो बच्चे बोलेंगे – न बैगन नहीं खाऊँगा, वो मुझे पसंद नहीं है। ऐसे नखरे घर-घर में बहुत हैं। तो बच्चों के नखरे नहीं सुनना। बच्चों की एक भी गलत बात नहीं माननी। बच्चो ठीक बात बोलें, तो सब मानो। भाई, टिंडे में, दूधी (घिया( में क्या तकलीफ है? इन्हें खाना स्वास्थ के लिये अच्छा है। नेत्र-ज्योति (आई-साइट( के लिये अच्छा है। पालक, मैथी, सरसों आदि-आदि जो हरी पत्ती वाले साग हैं, वो बच्चे नहीं खाते। इससे आई-साइट कमजोर हो जाएगी। छोटी उम्र में चश्मे लग जाएंगे। इसलिए उनको समझाओ और खिलाओ। स हम भी छोटे बच्चे थे। एक दिन हमारे घर में टिंडे की सब्जी बनी। वो हमको अच्छी नहीं लगी तो हमने कहा- यह टिंडे की सब्जी हम नहीं खायेंगे। हमारे लिये दूसरी सब्जी बनाओ। माता जी ने कहा- बेटा, हमारे घर में एक ही सब्जी बनती है। खानी है तो खा ले, नहीं तो सो जा। बोलिये, क्या करेंगे? भूखे सो जायेंगे। हमको खानी पड़ी। एक दिन नखरा किया, दूसरे दिन किया। वो ही जवाब था कि आज तो बैगन की सब्जी बनी है, तुमको यही खानी पड़ेगी, नहीं खानी तो भूखे सो जाओ। यह घर है, कोई होटल नहीं है। तुम्हारे लिये दूसरी सब्जी नहीं बनेगी। दो दिन नखरा किया। तीसरे दिन अक्ल ठिकाने आ गयी। बस, सीख गये। तब से लेकर आज तक जो मिलता है, खाते हैं, सब खाते हैं, कोई नखरा नहीं। भगवान ने सारी सब्जियाँ हमारे स्वास्थ के लिये ही बनाई हैं। अच्छी बनाई हैं। बच्चों को समझाओ और बारह-तेरह साल की उम्र तक जबरदस्ती खिलाओ। तब तक उनको आदत हो जाएगी। आगे फिर अपने आप खायेंगे। उनको इस तरह से खिलाओ। स ऐसे बच्चों या सभी बच्चों का मन ईश्वर में लगाने के लिये उन पर नियम लगाओ, कि सुबह शाम ईश्वर का ध्यान, यज्ञ, सन्ध्या, गायत्री मन्त्र का पाठ अवश्य करना पड़ेगा । जो नहीं करेगा, उसको नाश्ता, भोजन आदि नहीं मिलेगा। अच्छे खिलौने, फल, मिठाई, कम्प्यूटर आदि की सुविधा नहीं मिलेगी। जो करेगा, उसे सब सुविधाएँ और कभी-कभी विशेष इनाम भी मिलेगा बच्चों पर ऐसे नियम उनकी 12-13 वर्ष की उम्र तक जबरदस्ती लगायें । अन्यथा आपके बच्चे बिगड़ जाएँगे । भविष्य में वे स्वयं दुखी होंगे और सबको दुख देंगे ।

प्रणव’ शब्द का अर्थ है, वह शब्द, जिससे ईश्वर की अच्छी प्रकार से स्तुति की जाये। और वह होती है ‘ओ३म्’ से। तो प्रणव का अर्थ हुआ- ‘ओ३म्’। स इस ओम का जप करना चाहिये। ओम शब्द को बार-बार दोहराना चाहिये और अर्थ सहित दोहराना चाहिये। योग दर्शन के सूत्र 1/27 में लिखा है- ‘तस्य वाचकः प्रणवः’। ईश्वर का का नाम ओम है। अगले सूत्र 1/28 में लिखा है, ‘तज्जपस्तदर्थ भावनाम्’ अर्थात् ‘ओ३म्’ का जप अर्थ की भावना सहित करो। स अर्थ की भावना क्या होती है? अर्थ की भावना करना, ट्रांसलेसन करना नहीं कहलाता। ‘सबकी रक्षा करने वाला’ यह तो ओ३म शब्द का अनुवाद हुआ। अर्थ भावना नहीं हुई। अर्थ भावना का मतलब है, वैसी हमारी मानसिकता (मेनटेलिटी( भी बननी चाहिए, कि ‘ईश्वर सबकी रक्षा करने वाला है। मन-बु(ि में ऐसा हमको प्रतीत होना चाहिए। वो है ‘अर्थ भावना’। मान लीजिए, आप में से एक व्यक्ति मंच पर आ गया। आप उनका परिचय नहीं जानते। पहले-पहले जब आप परिचय नहीं जानते, तो आपको क्या दिखेगा। यह एक व्यक्ति है। चालीस की उमर दिखती है। बस, इतना दिखता है। अब जब उसका यह परिचय कराया जाएगा, कि ये जो व्यक्ति आपके सामने बैठे हुए हैं, ये हाईकोर्ट के जज हैं, तो आपकी दृष्टि बदल जाएगी। अब आपको वो चालीस साल का जवान नहीं दिखेगा। अब वो कुछ और दिखेगा। अब जो कुछ आपको दिख रहा है, वो है ‘अर्थ भावना’। अब आपको वह सामान्य व्यक्ति नहीं दिख रहा है, उसमें एक न्यायाधीश दिख रहा है। हाईकोर्ट का उच्च स्तर का एक बु(िमान न्यायाधीश दिख रहा है। तो अब जो कुछ भी दिख रहा है, दरअसल वो है ‘अर्थ भावना’। स ऐसे ही जब ओ३म् का जप करें, तो अर्थ की भावना सहित करें। हम कहते हैं, ‘ओम सर्वरक्षक’, तो ‘ईश्वर सर्वव्यापक निराकार होता हुआ सबकी रक्षा करता है,’ ऐसे भाव हमारे मन में होने चाहिए। जब हम कहेंगे, ‘ओ३म् आनंदः’ तो ‘ईश्वर आनंद का भंडार है’, ऐसा प्रतीत होना चाहिए। जैसे रसगुल्ले का नाम लेते ही, उसकी याद करते ही मस्तिष्क में विचार आता है – वाह! बहुत अच्छी वस्तु है, मिठाई है, खाने की चीज है। बहुत सुखदाई है। उससे हमको आनंद मिलता है। जैसे रसगुल्ले का स्मरण करने से आनंद मिलता है, ये प्रतीति होती है। ऐसे ही भगवान को आनंद स्वरूप कहेंगे। उसको भी आनंद का भंडार मानना चाहिए। ‘इससे हमको आनंद मिलेगा,’ इस तरह का भाव यदि हमारे मन में है, तो यह हुई- ‘अर्थ-भावना’। इस प्रकार से जप करना चाहिए।

इसमें स्थान और समय का कोई बन्धन नहीं है। क्या माता-पिता को याद करने में कोई स्थान, समय का बन्धन है! नहीं। ईश्वर भी तो हमारा माता-पिता है। ओ३म् भगवान का नाम है। ओ३म् का उच्चारण कहीं भी कर लो, कभी भी कर लो। भगवान को हमेशा याद रखना चाहिए। इसलिए ओ३म् का उच्चारण हमेशा कर सकते हैं। दिन में करो, रात में करो। भगवान का दरवाजा बंद होता ही नहीं है। वह चौबीस घंटे खुला रहता है। वेद में तो एक ही देवता है। परमात्मा और ‘ओ३म्’ उसका नाम है। ईश्वर को ठीक से पहचानिये। ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, निराकार है, उसकी कोई आकृति नहीं है। उसको प्राप्त करने के लिए कहीं दूर मक्का मदीना, वाराणसी और हरिद्वार में जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने घर में बैठकर शास्त्रों का अध्ययन, मनन, स्वाध्याय कीजिए। हाँ, शिविर में जाइए। वेद के विद्वानों के पास जाइए। वहाँ सत्संग सुनिए। शंका- समाधान कीजिए। वेदानुकूल पठन-पाठन व्यवहार कीजिए। इससे हमारा कल्याण होगा। इधर-उधर व्यर्थ भटकने से कोई लाभ नहीं।

जैसे ही आत्मा शरीर को छोड़ेगा, वैसे ही बेहोश हो जायेगा। उसको कोई होश नहीं, कोई शक्ति नहीं। अब आगे नहीं चल सकता। जीवात्मा स्थूल शरीर के बिना कुछ नहीं कर सकता। स शरीर छोड़ते ही ईश्वर उसको पकड़ लेगा। वह ईश्वर के नियंत्रण में आ जायेगा। अब ईश्वर उसको ले जायेगा। उसके कर्मानुसार रूस में, जापान में, अमेरिका में जहाँ कहीं भी अगला जन्म देना होगा, अथवा भारत में ही कहीं अगला जन्म देना होगा, तो उसको वहाँ तक पहुँचायेगा। फिर वहाँ अगला जन्म देगा। उसके कर्मानुसार यह व्यवस्था रहती हैं। स यह निश्चित है, कि- भूत-प्रेत बनके नहीं भटकेगा, किसी के शरीर में घुसकर उसको परेशान नहीं करेगा, यह पक्की बात है। यह शास्त्रों में लिखा है। स फिर चौथा करो, दसवाँ करो, बारहवाँ करो, तेरहवाँ करो। कोई फर्क नहीं पड़ता। वो जो बचे हुए जीवित लोग हैं, वो अपने लिये करते हैं। अंतिम-संस्कार जिसको अंत्येष्टि कहते हैं। यह सोलह संस्कारों में अन्तिम है। तो ये शब्द ही कह रहा है कि अंत्येष्टि हो गयी यानि बात खत्म हो गयी। अंत्येष्टि के बाद मृतक के लिए हम कुछ नहीं कर सकते। आत्मा तो दूसरे जन्म में गया और उसका शरीर भी खत्म हो गया। सारे रिश्ते खत्म हो गये। उसके बाद हम उसके लिए कुछ नहीं कर सकते।

आत्मा और परमात्मा एक नहीं है। आत्मा अलग चीज है, परमात्मा अलग चीज है। परमात्मा एक है, और आत्मायें तो अनेक हैं, असंख्य हैं। हम तो गिन भी नहीं सकते हैं। ईश्वर तो गिन सकता है, कि कितनी आत्मायें है । आत्मा का टोटल नम्बर (कुल संख्या( ईश्वर को पता है। हमको नहीं पता है। आत्माओं की इतनी अधिक संख्या है, कि हम दिमाग लगायेंगे, तो भी फैल हो जायेंगे। हम कल्पना भी नहीं कर सकते। स ईश्वर और आत्मा दोनों अलग-अलग चीजें है, दोनों में अंतर है। कैसे अंतर है? इलेक्ट्रान और प्रोटॉन में अंतर है या नहीं। है यह कैसे पता चला? उनकी प्रॉपर्टीज (गुणधर्म( से। इलेक्ट्रान में निगेटिव चार्ज है, और प्रोटॉन में पोजिटिव चार्ज है। उसकी प्रोपर्टीज से पता लगता है, कि इलेक्ट्रान अलग चीज है, प्रोटॉन अलग चीज है। इसी तरह से आत्मा और ईश्वर इन दोनों की प्रॉपर्टीज भी अलग-अलग हैं। इनकी प्रोपर्टीज से पता लगता है कि ईश्वर अलग है, आत्मा अलग है। क्या अंतर हैं इनकी प्रॉर्टीज में। स सोचिये, क्या ईश्वर कभी दुःखी होता है ? नहीं और आत्मा तो रोज दुःखी रहता है। इससे पता लगा दोनों अलग-अलग हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है, क्या जीवात्मा सर्वव्यापक है? नहीं। जीवात्मा एक स्थान पर रहता है। ईश्वर को सब कुछ मालूम है, क्या जीवात्मा को सब कुछ मालूम है? नहीं मालूम। जीवात्मा घोटाले करता है, क्या ईश्वर भी घोटाले करता है। यहां तो रोज अखबारों में घोटाले पढ़ते हैं। कोई चार सौ करोड़ खा गया, कोई नौ सौ करोड़ खा गया, कोई पन्द्रह हजार करोड़ खा गया। इसलिए जब दोनों की प्रॉर्टीज अलग-अलग है, तो दोनों चीजें अलग-अलग है। ईश्वर अलग है, आत्मा अलग है। स ईश्वर एक है, और वो अखंड तत्त्व है। वो टुकड़े-टुकड़े नहीं है। जीवात्माएं अलग-अलग हैं। एक-एक आत्मायें भी स्वतंत्रता पूर्वक अखंड है। आत्मा भी कोई टुकड़ों (पार्टीकल्स( का कॉमबीनेशन नहीं है,= खंडों का समुदाय नहीं है। वो भी एक तत्त्व है। लेकिन आत्मा बहुत छोटा है, और ईश्वर बहुत बड़ा है। ईश्वर पूरे ब्रह्माण्ड में और उससे भी बाहर, बहुत दूर-दूर तक फैला हुआ है। इस प्रकार दोनों अलग-अलग है।

आपने सूत्र पढ़ा होगा : -इन्द्रिय दोषात् संस्कार दोषाच्चाविद्या। वैशेषिक. इन्द्रिय दोष का अर्थ है-इन्द्रियों में टूट-फूट, खराबी। आँख बिगड़ गई, आईसाइट कमजोर हो गई या आँख में कलर ब्लाइंडनेस (रंग ठीक न दिखना या रात को न दीखना( आदि कोई रोग हो गया, तो कलर नहीं पहचान पाते, रंगों में अन्तर नहीं समझ में आता। यह इन्द्रिय दोष है। स संस्कार दोष यह है कि इन्द्रिय बिल्कुल ठीक है, पर वो संस्कार यानी आदत ऐसी पड़ी हुई है, कि इन्द्रिय से ठीक दिखते हुए भी हम आदत के वशीभूत होकर फिर वही गलती कर बैठते हैं। जैसे- चाय पीने की आदत पड़ गई। चाय पीते हैं, सुख मिलता है, फिर दोबारा पीते हैं, सुख मिलता है, फिर तीसरी बार पीते हैं, सुख मिलता है। सैकड़ों बार चाय पी-पीकर उसका जो सुख ले लिया, उससे मन के ऊपर जो छाप लगी कि चाय बहुत अच्छी थी, चाय पीने में बहुत मजा आता है, बढ़िया कड़क चाय होनी चाहिए । तो यह हो गया संस्कार। स जब हम रोज चाय पीते हैं और एक दिन शिविर में आये तो यहाँ पर चाय नहीं मिली। अब आपको बड़ी बेचैनी होगी, कष्ट होगा। सोचेंगेः- क्या बात है, आज चाय नहीं मिली, क्या जंगल में फंस गए भई, इससे तो घर में ही अच्छे थे। अब यह दुःख हो रहा है न, यह संस्कार के कारण ही हो रहा है। इसका नाम है-संस्कार दुःख। वो चीज नहीं मिल पाई, तो उसके जो संस्कार पड़े हुए थे, अब वो दुःख दे रहे हैं। इसका नाम संस्कार दुःख है। स और आँख में टूट-फूट हो गई, कान में खराबी आ गई, सुनाई नहीं देता, उसके कारण अविद्या पैदा हो गई, तो यह इन्द्रिय दोष के कारण अविद्या हुई। आदत के कारण चाय नहीं मिल रही है और फिर मन में अविद्या पैदा हो रही है, कि ‘चाय बहुत अच्छी (सुखदायक( है, चाय देते नहीं, ये लोग बड़े खराब है।’ अब ये जो अविद्या पैदा हो रही है, यह संस्कार दोष से हो रही है। यह दोनों में अंतर है।

ईश्वर श्रेष्ठ पुरूषों की रक्षा तत्काल करता है। पर वो अंदर से उत्साह देकर, अंदर से कुछ सूझबूझ देकर, ज्ञान-विज्ञान देकर। ऐसे कोई दुष्ट व्यक्ति, श्रेष्ठ व्यक्ति पर हथियार उठाये, तलवार उठाये और ईश्वर यहाँ बीच में ढाल अड़ा दे, ईश्वर ऐसा नहीं करता। ऐसी प्रेरणा ईश्वर सबकी यथायोग्य रक्षा करता है। श्रेष्ठों की भी अन्यों की भी

चिंतन का मतलब होता है किसी बात की गहराई में जाना। उसको कई प्रकार से सोचना। जैसे मान लीजिये, आपने प्रवचन में सुना अथवा किसी पुस्तक से पढ़ा कि- ‘एक ईश्वर है।’ ईश्वर कितने हैं?ं एक है। सभी लोग कहते हैं। आप बातचीत में किसी से भी पूछो, कि भगवान एक हैं या अनेक ? तो क्या उत्तर देगा -एक। फिर दूसरा सवाल पूछो वो एक भगवान एक जगह रहता है, या सब जगह। सब जगह ? सभी लोग यही कहेंगे- सब जगह। जब दो बात तो उन्होंने ठीक बोल दी, भगवान एक है और वह सब जगह रहता है। और जब तीसरा सवाल पूछेंगे, तो झगड़ा शुरू हो जायेगा। तीसरा सवाल यह है कि जो वस्तु सब जगह रहती है, क्या उसकी शक्ल होनी चाहिये या नहीं होनी चाहिये? नहीं होनी चाहिये। अब पूछो, आपके घर में शक्ल वाला भगवान रखा है या नहीं रखा है? रखा है। बस यही गड़बड़ है। जब ऐसी गड़बड़ सामने आये, तब चिन्तन की जरूरत है, तब सोचने की जरूरत है। इसकी गहराई में उतरो, अगर भगवान शक्ल वाला है तो वह सब जगह नहीं रह सकता । और अगर वह सब जगह रहता है, तो शक्ल वाला नहीं हो सकता। ऐसे बैठ करके विचार करना। स दो पक्ष बनाकर के तर्क-वितर्क उठाना। फिर प्रश्न उठाना, फिर उसका उत्तर ढूंढना, फिर प्रश्न उठाना, फिर उत्तर ढूंढना। इसका नाम है ”चिन्तन”। इस चिन्तन के लिये पहली चीज है, अच्छी प्रकार ध्यान से प्रवचन सुनना। किसी वक्ता का प्रवचन पूरे ध्यान से सुनना। मन लगाकर सुनना, कि उसने क्या बोला। क्या-क्या शब्द बोले? क्या कहना चाहता है? उसके अभिप्राय को ठीक से समझना, पहली बात। और दूसरी बात-उसको थोड़ा दोहराना (रिवाइज( करना। सोचना, उसने क्या बोला था। उसके वचनों का अर्थ क्या था? और फिर तीसरी बात, ऐसे पक्ष-विपक्ष बनाकर के प्रश्न-उत्तर करना, और उस बात की गहराई में उतरना। और अंत में एक निर्णय पर पहुँचना। सारे प्रश्न-उत्तर करके अंत में सार क्या निकला। ईश्वर को शक्ल वाला मानें या नहीं। अगर वो एक है, यह हमने स्वीकार कर लिया। और यह भी स्वीकार कर लिया, कि वो सब जगह रहता है। तो फिर तीसरी बात अपने आप साफ है, जो चीज सब जगह रहती है, उसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। या तो कोई प्रमाण लाओ, कि अमुक वस्तु सब जगह रहती है, और उसकी शक्ल भी है। यदि कोई ऐसी वस्तु मिल जाये, कि वो सब जगह रहती है और उसकी भी फोटो (शक्ल( है। तब तो हम ईश्वर की फोटो (शक्ल( मान लेंगे। वो भी सब जगह रहता है, उसकी भी फोटो शक्ल है । यदि आप ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं ढूंढ पाये, कोई्र उदाहरण नहीं ढूंढ पाये, कि कोई वस्तु सब जगह है और शक्ल भी है। यदि नहीं ढूंढ पाये, तो इसका मतलब साफ है, कि ईश्वर सब जगह रहता है, इसलिए उसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। इसका नाम है- ‘चिन्तन’। इस तरह से करना चहिये। और जो अंत में सार निकले उसको स्वीकार करना चहिये। जब यह प्रमाण से सि( हो गया कि ईश्वर सब जगह रहता है, और उसकी कोई शक्ल, आकृति नहीं है। तो फिर उसको स्वीकार करो। आज के बाद शक्ल वाले की, फोटो वाले की पूजा नहीं करना। वो तो महापुरूषों की फोटो है। रखो घर में, कोई आपत्ति थोड़े ही है। फोटो रखना कोई बुरी बात थोड़े ही है। देखो हमने कितनी फोटो लगा रखी है यहाँ पर। अपने महापुरूषों की, दादा-परदादा की, बड़े-बुजुर्गों की फोटो लगानी चाहिये। देश के वीर पुरूषों की, महारानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस ऐसे-ऐसे वीर पुरूषों की फोटो लगानी चाहिये। अच्छे-अच्छे संत महात्मा, महर्षि दयानंद, महर्षि कणाद, महर्षि गौतम, महर्षि कपिल ऐसे-ऐसे साधु, संतों, )षियों के फोटो लगाने चाहिये। फोटो लगाने मं् कोई आपत्ति नहीं है। उनकी पूजा नहीं करनी, उन की आरती नहीं करनी, उनको खिलाना-पिलाना नहीं है। यह गड़बड़ है। बोलो, अग्नि सब जगह रहती है न। जब वो सब जगह रहती है तो उसकी आकार, आकृति कौन सी है। जो अग्नि लपटों के रूप में दिख रही है। वो सब जगह नहीं रहती। और जो सब जगह रहती है, वो दिखती नहीं। बताईये, आकार कहाँ हुआ? इसलिये दोनों में अंतर है। यह है चिन्तन का स्वरूप।

बार-बार ईश्वर के बारे में चिंतन करें, बार-बार सोचें। हम जी रहें हैं। चौबीस घंटे वायु का प्रयोग करते हैं, श्वास लेते हैं। अगर पाँच मिनट शु( वायु न मिले, तो शायद हमारा शांतिपाठ हो जायेगा। हो जायेगा न। शु( वायु पाँच मिनट न मिले, तो शांतिपाठ (मृत्यु( हो जायेगा। जीना कठिन है। इस तरह से सोचिये । कौन है जो हमारे जीवन की रक्षा कर रहा है। एक-एक मिनट, एक-एक सेकंड कौन हमको यह शु( वायु (ऑक्सीजन( दे रहा है, जिसके कारण हम जी रहे हैं। कौन हमारे लिए हर एक )तु में अलग-अलग सब्जियाँ बनाकर भेज रहा है। अलग-अलग फल बनाकर भेज रहा है। अलग-अलग वनस्पतियाँ, औषधियाँ और तरह-तरह की चीजें बनाकर भेज रहा है। ऐसे ईश्वर के गुणों पर विचार करें। कौन है, जो हमारे कर्मों का हिसाब रख रहा है। एक-एक कर्म का हिसाब रखता है। चौबीस घंटे में हम पता नहीं कितने कर्म करते हैं मन से, वाणी से, शरीर से। कौन है, जो हमारे सारे कर्मों का हिसाब रखता है? कौन है, जो हम पर अन्याय करने वालों को दण्ड देता है? उन अन्यायकारियों से जो हमको नुकसान होता है, हानि होती है, उस नुकसान की पूर्ति करता है, हमारी क्षतिपूर्ति करता है। कम्पन्सेशन देता है। वो कौन है? मनुष्यों में तो कोई नहीं दिखता। और हम जो अच्छे कर्म करते हैं, उन अच्छे कर्मों का फल हमको कौन देता है? हमें मनुष्य जन्म देता है, आगे बार-बार देता है। अनादिकाल से दे रहा है और भविष्य में अनंतकाल तक देता रहेगा। इतने अच्छे-अच्छे लोग संसार में जिसने उत्पन्न किये हैं। अच्छे-अच्छे धार्मिक लोग, देशभक्त लोग, ईमानदार लोग, वीरपुरूष, ऐसे अच्छे-अच्छे साधु, संत, महात्मा, विद्वान लोग, जो धर्म की रक्षा करते हैं, देश की रक्षा करते हैं, दूसरों को सुख देते हैं। सब दुनिया का भला करते हैं। कौन है, उनको भेजने वाला। और यह सब करके भी वो भगवान हमसे कितनी फीस लेता है, कितना शुल्क लेता है? कुछ नहीं। इस तरह से बार-बार सोचें, तो आपके मन में प्रेम बढ़ेगा, रूचि बढ़ेगी। और माता-पिता वाले उदाहरण की बात थी, तो वैसे भी सोचें। जैसे छोटा बच्चा होता है, पन्द्रह दिन का, एक महीने का। उसका सारा काम उसकी माँ ही करती है। खिलाना, पिलाना, सुलाना, जगाना, नहलाना, धुलाना सारा काम उसकी माँ ही करती है। उस बच्चे को तो कुछ होश ही नहीं, वो कुछ कर नहीं सकता। तो उस तरह से भी सोचें। जैसे माता छोटे बालक की सब प्रकार से रक्षा करती है, उसका सारा ध्यान रखती है। ऐसे ही हम छोटे बच्चे की तरह हैं। हमारी बु(ि क्या है, कुछ भी नहीं है। क्या खाना, क्या नहीं खाना, कुछ भी पता नहीं। उल्टा-सीधा खाते रहते हैं। शरीर को बिगाड़ते रहते हैं। और एक लंबी सीमा तक ईश्वर हमारी रक्षा करता रहता है, रोगों से बचाता रहता है। इतनी व्यवस्था उसने हमारे शरीर में कर रखी है। और जब बहुत ज्यादा सीमा पार हो जाती है, अतिक्रमण बहुत हो जाता है, तब जाकर के भगवान हमारे शरीर में कुछ छोटा सा रोग पैदा करता है। और वो भी सावधान करने के लिये। सावधान! बहुत लापरवाही कर ली, जागो, लापरवाही मत करो। जानकारी करो, क्या खाना, क्या नहीं खाना। और उस हिसाब से खाओ-पिओ, और अपने शरीर की रक्षा करो। तो इस तरह से हम बहुत कम जानते हैं। कैसे जीना चाहिये, कैसे सोचना चाहिये, कैसे बोलना चाहिये, कैसे व्यवहार करना चाहिये, कैसे उठना-बैठना चाहिये, बहुत कम जानते हैं। और फिर भी ईश्वर हमको पता नहीं अंदर से कैसे-कैसे सूचना देता रहता है चौबीस घंटे यह उसकी बड़ी कृपा है। इस तरह जब हम सोचते हैं तो हमें लगता है कि हम वैसे ही बच्चे हैं, पन्द्रह दिन के, एक महीने के, दो महीने के और हमारी सब रक्षा भगवान ही कर रहा है। कब, कैसी बु(ि देता है, कब क्या अंदर से सुझाव देता है, और जब हम उसकी बात मान लेते हैं, तो हमारा बहुत अच्छा काम निपट जाता है। हमारा बहुत अच्छा भला हो जाता है। हम अनेक आपत्तियों से, दुर्घटनाओं से बच जाते हैं। इस तरह से सोचें। तो माता-पिता की तरह हमारे अंदर भी रूचि आयेगी, कि जैसे हम माता-पिता को चाहते हैं, उनसे प्रेम करते हैं, उनका उपकार समझते हैं, ऐसे हम ईश्वर का भी उपकार समझेंगे। ऐसा बार-बार सोचें। तो हम उनसे माता-पिता की तरह प्रेम करने की स्थिति भी प्राप्त कर लेंगे।

जी हाँ, ईश्वर का अनुभव, जो सूक्ष्म अनुभव है, जिसको समाधि कहते हैं, समाधि-प्रत्यक्ष कहते हैं, वो तो समाधि लगाने पर ही होगा। परंतु उससे पहले भी कुछ मोटे स्तर का अनुभव हो सकता है। और वैसे बहुत सारे लोगों को होता भी है, पर वो ध्यान नहीं देते, ध्यान कम देते हैं। कैसे होता है ईश्वर का अनुभव? पहले भी मैंने कहा था, कि जब हम बुरा काम करने की बात सोचते हैं, तो मन में भय, शंका, लज्जा होती है। होती है कि नहीं होती? होती है न। यह जीवात्मा की ओर से नहीं है। यह ईश्वर की ओर से है। ये ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के सातवें समुल्लास में लिखा है। इस तरह से हम अपने अंदर ईश्वर को अनुभव कर सकते हैं। जब हम अच्छी योजना बनाते हैं, तब आनंद, उत्साह, निर्भयता, ये अंदर से प्रतीत होता तो है। तो महर्षि दयानंद जी लिखते हैं यह ईश्वर का अनुभव है यह एक मोटे स्तर का आंतरिक अनुभव है। और एक दूसरा स्थूल-बाह्य अनुभव भी है, वो कौन सा है। इस प्रसंग में सातवें समुल्लास में लिखा है, गुणों को देखकर गुणी का प्रत्यक्ष होता है। प्रसंग यह चल रहा है, आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सि(ि कैसे करते हो? तो उत्तर दिया है, कि सब प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से हम ईश्वर की सि(ी करते हैं। तो प्रत्यक्ष प्रमाण के प्रसंग में महर्षि दयानंद जी ने लिखा है, कि गुणों के माध्यम से गुणी का प्रत्यक्ष होता है। उदाहरण के लिये जैसे यह पृथ्वी है। पृथ्वी एक गुणी है, एक द्रव्य है। और इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि-आदि ये गुण हैं। जब हम पृथ्वी का प्रत्यक्ष करते हैं, तो आँख से देखकर के रूप के माध्यम से पृथ्वी का प्रत्यक्ष करते हैं या इसकी (मिट्टी की( गंध आती है, तो गंध से हम पृथ्वी का प्रत्यक्ष करते हैं। अथवा हाथ से छूकर के स्पर्श गुण से प्रत्यक्ष करते हैं। इससे पता चला कि किसी पदार्थ का जो प्रत्यक्ष है, वो उस पदार्थ के गुणों के माध्यम से होता है। तो यह उदाहरण देकर महर्षि दयानंद जी आगे कहते हैं कि इस सृष्टि में ईश्वर के ‘रचना आदि गुण’ इस सृष्टि में देखिये । सूर्य ईश्वर द्वारा रचित पदार्थ है, चंद्रमा ईश्वर की रचना है, पृथ्वी ईश्वर द्वारा रचित पदार्थ है, और फल-फूल, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी, प्राणियों के शरीर, ये किसने बनाये? ईश्वर ने। तो सृष्टि के पदार्थो में ईश्वर की रचना आदि गुणों को सृष्टि में देखो और इस रचना गुण से इनके रचनाकार ईश्वर का प्रत्यक्ष करो। तो यदि हम इन पदार्थों की रचना को ध्यान से देखेंगे, तो भी हमको मोटे स्तर पर ईश्वर का अनुभव होगा, कि हाँ,कोई न कोई है, जो फूल बनाता है, कलियाँ बनाता है, वनस्पतियाँ बनाता है, पेड़-पौधे बनाता है, और साग-सब्जी बनाता है, प्राणियों के शरीर बनाता है, सूरज-चाँद-धरती बनाता है, कोई न कोई है। इस तरह से मोटे स्तर का प्रत्यक्ष, बिना समाधि के भी हो सकता है। तो यह है दो प्रकार का प्रत्यक्ष। एक तो रचना आदि गुणों को देखकर ईश्वर का मोटा स्तर का अनुभव, और दूसरा अंदर वाला। अर्थात् भय, शंका, लज्जा के माध्यम से ईश्वर का अनुभव। यह दो तरह का अनुभव तो सबको हो सकता है। थोड़ा सा ध्यान देंगे, तो सबको हो जायेगा। बाकी तीसरा समाधि वाला सूक्ष्म है, कठिन है । इसलिए वो लंबे समय के बाद होगा।

कोई भी नया काम करते हैं तो मन में शंका उत्पन्न होती है, कि-यह ठीक है या गलत। और भय भी लगता है, कि करुँ या न करुँ। अर्थात् सफलता मिलेगी या नहीं । स इसका कारण यह है, कि कर्मों के संबंध में हमारी जानकारी कम है। अच्छे से पता नहीं रहता, कि यह काम ठीक है या गलत है। इसलिए हमको शंका होती है, कि करुँ या न करुँ। अथवा हमको जानकारी भी है, कि यह काम ठीक है। और फिर भी हमको शंका होती है। इसका कारण यह हो सकता है, कि आत्मविश्वास की कमी है। हमको अपने पर ही शंका है-पता नहीं कर पाऊँगा या नहीं कर पाऊँगा? फेल तो नहीं हो जाऊँगा? इन दो कारणों को दूर कर दें। यह काम करना ही है, यह काम ठीक है, इसकी जानकारी वेद आदि ग्रंथों से होगी। ईश्वर का बताया हुआ वेद, वही हमारा असली संविधान है। वहाँ से पता लगा लेंगे, कि बात सही है या गलत। इससे आपकी शंका दूर हो जाएगी। स और दूसरा, अपने अन्दर आत्मविश्वास पैदा कीजिए, कान्फीडेंस लाइए, कि-यह काम ठीक है, मेरी क्षमता के अनुरूप है, मैं यह कर सकता हूँ, मुझमें इतनी क्षमता है। भगवान ने मुझे बहुत शक्ति दी है। बहुत विद्या दी है, बु(ि दी है, इसलिए कर सकता हूँ । तो आप खुद करेंगे। न कोई शंका होगी, न कोई भय लगेगा, कुछ नहीं होगा। स काम गलत हो, तो डिसीजन (निर्णय( ले लीजिए, कि नहीं करना। यह कानून के विरू( है। करूंगा तो दण्ड मिलेगा। बस सारी शंका, भय खत्म।

ध्यान करने के लिए ईश्वर की आकृति आवश्यक नहीं है, बिना आकृति के भी ध्यान हो सकता है। आप लोग सुख का ध्यान करते हैं कि सुख मिलना चाहिए। सुख का ध्यान करते हैं न, तो क्या सुख की आकृति बनाकर ध्यान करते हैं या बिना आकृति बनाए? हम बिना आकृति बनाए ध्यान करते हैं और दुःख का भी ध्यान करते हैं, कि ‘हे भगवान दुःख न आ जाए।’ रोज ध्यान करते हैं, लेकिन दुःख की कोई आकृति नहीं बनाते। इसलिए ध्यान करने के लिए आकृति बनाना आवश्यक नहीं है। पृथ्वी के अन्दर गुरूत्वाकर्षण (ग्रबिटेशन फोर्स( की कोई आकृति है क्या? उसकी शक्ल, कोई रूप, रंग, कलर, कुछ नहीं है। फिर भी देखो निराकार स्वरुप में उसको लोग पढ़ते भी हैं, पढ़ाते भी हैं, समझाते भी हैं और सारे व्यवहार भी चल रहे हैं। कोई भी साइंटिस्ट (वैज्ञानिक( यह नहीं कहता, कि ग्रेविटेश्न फोर्स की कोई पीली आकृति है, लाल आकृति है या किस रंग की है? और सब मानते हैं, पढ़ते हैं, पढ़ाते भी हैं। ऐसी पता नहीं कितनी चीजे हैं, जिनका कोई रूप, रंग, आकृति नहीं है, फिर भी उनको सब स्वीकार करते हैं। उनको मानते हैं उनके आधार पर सारा व्यवहार भी चलता है। एक्स-रे नहीं दिखती, अल्फा-रे नहीं दिखती, बीटा-रे नहीं दिखती, गामा रेज नहीं दिखती, ग्रेविटेशन फोर्स नहीं दिखती, इनफ्रारेड लाईट नहीं दिखती, अल्ट्रासाउण्ड नहीं दिखती, पता नहीं कितनी चीजें हैं, जो नहीं दिखती। रेडियो और टेलीविजन का प्रसारण हो रहा है कि नहीं ? यहाँ उनकी किरणे हैं कि नहीं? जो सारे चैनल चल रहे, इस समय भी तो चल रहे हैं न। तो यहाँ पर उनकी सारी किरणें हैं, पर ये नहीं दिखतीं। ऐसी बहुत सारी चीजें हैं, जो होती है, अपना-अपना काम करती है और दिखती एक भी नहीं। और वो सब माननी पड़ती है। ईश्वर भी ऐसा है, कि कोई आकृति नहीं है। बिना आकृति के ही उसका ध्यान करेंगे, धीरे-धीरे अभ्यास करेंगे हो जाएगा ।

आत्मा के पास अपनी देखने,सुनने की शक्तियाँ हैं, परंतु वो बहुत कमजोर हैं। केवल अपनी शक्तियों से वो देख-सुन नहीं पाता। जब बंधन में आता है, तो प्राकृतिक शरीर की सहायता से, इन्द्रियों से वो काम करता है। जीवात्मा जब मोक्ष में जाता है, तो ईश्वर उसको अपनी शक्ति देता है। जैसे छोटा बच्चा चल नहीं पाता, तो माँ उसको गोद में उठा लेती है। और माँ की गोद में बैठकर फिर वह यात्रा करता है। उसके पास शक्ति कम है, इसलिए तब माँ उसकी सहायता करती है, और उसका काम पूरा हो जाता है। ऐसे ही ईश्वर आत्मा को मोक्ष में देखने के लिए, सुनने के लिए, सारे काम करने के लिए अपनी शक्ति दे देता है।

वैसे तो ‘सृष्टि’ शब्द का अर्थ ही पूरा ‘ब्रह्मंड’ है। पूछना यह चाहिए था, कि सौर मंडल एक है, या बहुत सारे हैं। सृष्टि तो एक ही है। पूरा ब्रह्माण्ड एक सृष्टि है। इसमें बहुत सारे सौर मंडल हैं। उनमें से एक हमारा यह सौर मंडल है, जिसमें हम रहते हैं। एक सूर्य और उसका परिवार, यह हुआ एक सौर मंडल। अरबों तारे त्र (अरबों सूर्य( और उनके परिवार। यानि अरबों की संख्या में सौर मंडल एक आकाशगंगा में हैं। और ब्रह्माण्ड में ऐसी-ऐसी अरबों आकाशगंगाऐं हैं। तो इतना विशाल यह ब्रह्माण्ड है। इसे हम समग्रतः सृष्टि कह सकते हैं। सृष्टि शब्द से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का ग्रहण हो जाएगा। पूरी सृष्टि एक ही है।

अच्छा जब आपकी कार टूटती है तो किसको पीड़ा होती है? मकान गिर जाता है, तो किसको पीड़ा होती है? आपको ही होती है न। वो जड़ है। जड़ मकान टूटने पर, जड़ कार के टूटने पर भी आपको पीड़ा होती है। इसलिये होती है कि क्योंकि आपका उससे कोई संबंध है। और जापान में भूकंप आये, पाकिस्तान में भूकंप आये तब पीड़ा नहीं होती। क्योंकि उससे आपका संबंध नहीं है। यहाँ सवाल जड़ और चेतन का नहीं है, सवाल तो संबंध का है। जिस वस्तु से हमारा संबंध है, उस वस्तु के टूटने-फूटने, नष्ट होने पर हमको कष्ट होता है, वो वस्तु चाहे जड़ हो, चाहे जो भी हो। मकान जड़ है, कार भी जड़ है, वो टूट जाते हैं तो पीड़ा होती है, क्योंकि वो हमारी कार है। ऐसे ही यह शरीर हमारा है। शरीर जड़ है, और शरीर में चोट लगती है तो हमको कष्ट होता है। कष्ट तो चेतन को ही होना है। जड़ वस्तु तो सुख-दुख को महसूस करती नहीं। चेतन हैं हम (आत्मा(, इसलिए हमको ही कष्ट होता है। तो अब शरीर को जो सामान्य चोट लगती है, उतना कष्ट तो हम सहन भी कर लेंगे। पर ज्यादा गहरी चोट लगेगी, तो उस कष्ट को रोकने का हमारा सामर्थ्य नहीं है। इसलिये हमको न चाहते हुए भी वो कष्ट भोगना पड़ता है। जैसे- सर दुख रहा है, पेट दुख रहा है, बुखार आ गया, तो उस कष्ट को हम रोक नहीं पाते, जीवात्मा में इतनी शक्ति नहीं है। इसलिये उसको भोगना पड़ता है। और फिर दवाई-चिकित्सा करते हैं तो वो रोग हट जाता है, वो कष्ट मिट जाता है। सार यह हुआ – शरीर के साथ हमारा संबंध होने के कारण हमें पीड़ा होती है।

बिल्कुल है। इसमें कोई शंका नहीं है। स सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में इस बारे में लिखा है। ईश्वर सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ का कोई भी कार्य व्यर्थ नहीं होता। आप और हम, जो थोड़ी-बहुत बु(ि रखते हैं, जब भी कोई काम करते हैं, तो सोच-समझकर करते हैं। हम कोई फालतू काम नहीं करते। अगर कोई काम करने से कुछ भी लाभ नहीं है, तो हम बिल्कुल नहीं करेंगे। जब हम इतनी छोटी बु(ि रखने वाले होकर भी, व्यर्थ में कोई काम नहीं करते, तो इतनी बड़ी सृष्टि बनाने वाला सर्वज्ञ ईश्वर ऐसा क्यों करेगा। ब्रह्माण्ड में अरबों-खरबों आकाशगंगायें हैं। एक-एक आकाशगंगा में खरबों-खरबों तारे हैं, उनके अपने-अपने सोलर सिस्टम्स है। तो सवाल उठता है, कि इतनी लंबी-चौड़ी दुनिया जो ईश्वर ने बनाई है, क्या यह व्यर्थ में बनाई है? अगर यहाँ प्राणी न रहते हों, तो इतनी बड़ी सृष्टि बनाना व्यर्थ है। हमारे इस सौर मंडल में कम से कम एक पृथ्वी पर तो जीवन है। यह प्रत्यक्ष दिख रहा है। मंगल पर जीवन नहीं मिला, बृहस्पति पर नहीं मिला, शुक्र पर नहीं मिला, बुध पर नहीं मिला, शनि पर नहीं मिला, न सही। विभिन्न ग्रहों में से एक ग्रह ‘पृथ्वी’ पर तो जीवन है। तो इसी हिसाब से अनुमान लगा लीजिये कि जैसे इस एक सौरमंडल में कम से कम एक पृथ्वी पर जीवन है। ऐसे ही प्रत्येक सौरमंडल में कम से कम एक ग्रह में तो निःसंदेह जीवन होना ही चाहिये, अन्यथा वो बनाना व्यर्थ है। तो अनुमान-प्रमाण से सि( होता है, कि और भी करोड़ों अरबों पृथ्वियाँ हैं। वहाँ भी हमारे जैसे ही मनुष्य, पशु-पक्षी, आदि प्राणी रहते होंगे। वहाँ भी इसी ईश्वर का शासन चलता होगा। वहाँ भी ऐसे ही चार ‘वेद’ होंगे, जैसे हमारी इस धरती पर है।

हाँ, बिल्कुल कही जायेगी, क्यों नहीं कही जाएगी। आप मक्खी, मच्छर मारेंगे, तो फिर हत्या तो कही ही जायेगी। ध्यान में बैठते हैं, एक मक्खी आ गई। कान में गुनगुनाती है, तो आप हटा देते हैं। फिर बैठते हैं, तो वो फिर आती है। मक्खी में इतनी बु(ि थोड़ी है, कि आप हटाना चाहते हैं, तो वो हट जाए। वो तो बार-बार आती है। फिर व्यक्ति को गुस्सा आता है, तो वो फिर क्या करता है? सोचता है- अच्छा देखता हूँ कि वो फिर कैसे आती है। अब मक्खी आई, यूं मारेगा। मच्छर आया, यूँ मारेगा। वो हिंसा है, पाप है। चाहे जानबूझकर मारे, चाहे अनजाने में मारे, पाप तो पाप ही है। अनजाने में किए गए पाप का दंड थोड़ा कम होता है। जानबूझकर करेंगे, तो दंड अधिक मिलेगा। अरे, मक्खी परेशान करती है, तो हटा दो। आप कमरे में मक्खी-मच्छर को क्यों आने देते हैं। कमरे मे जाली लगाओ। दरवाजे बंद रखो। खिडकी में जाली लगाओ। मच्छरदानी लगाओ, मच्छर नहीं आने दो। उसका उपाय करो। मारेंगे तो हिंसा होगी, पाप लगेगा। अगर बिना मारे काम चलता है, तो क्यों मारें। हमारी आदत खराब हो जाएगी। जानबूझकर मारेंगे, क्रोधपूर्वक मारेंगे, तो निःसंदेह हिंसा के भागी बनेंगे। दुष्ट को दंड देने का विधान जरूर है, पर यदि आपने क्रोधपूर्वक दंड दिया, तो आप हिंसक हो जाऐंगे। न्यायाधीश जो दंड देता है, वो क्रोध करके नहीं देता। दुष्ट को दंड देता है, पर बिना क्रोध किए। ऐसे ही आप मक्खी को हटा दें। बिना क्रोध किए। मच्छर को हटा दें। और कभी बहुत समझाने के बाद भी मच्छर नहीं मानता। बार-बार समझा दिया, मच्छर हटता ही नहीं। मक्खी को समझा दिया, लेकिन वो हटती ही नहीं। अब उसको दंड देना है। मान लो, चलो मारना ही है, तो बिना क्रोध किए मारो, तब तो ठीक है। जब आप क्रोध में आ के मारते हैं, तो हिंसा हो जाती है। अपने स्वभाव को बिगड़ने नहीं देना। क्रोध मत करना। क्रोध पूर्वक नहीं मारना। अब ऐसा करने में आपको कई साल लग जायेंगे। करो परिश्रम, क्रोध को जीतने के लिये।

इसका उत्तर है, इस पृथ्वी की गणना तो यह है ही। इस पृथ्वी को उत्पन्न हुये इतना समय हो गया। महर्षि दयानंद जी के ग्रन्थों को देखने से पता चलता है, कि महर्षि दयानन्द जी पूरे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक साथ मानते हैं और पूरे ब्रह्माण्ड की प्रलय भी एक साथ मानते हैं। )ग्वेद भाष्य-भूमिका आदि जो ग्रंथ हैं, उनके आधार पर ऐसा लगता है, कि यह सारे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का काल है।

सबसे छोटा कलियुग है, जिसमें चार लाख बत्तीस हजार वर्ष, द्वापर युग में इससे दोगुने- आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष, त्रेता युग में इससे तीन गुना- बारह लाख छियान्नवे हजार वर्ष, और सतयुग में इससे चार गुना- सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष होते हैं। इन चारों को जोड़ देंगे, तो तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष हुए। यह एक चतुर्युगी हो गई। एक सृष्टिकाल में एक हजार चतुर्युगी होती हैं। तो इसको एक हजार से गुणा करेंगे, तो चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों की संख्या होती है। एक हजार बार इस सृष्टिकाल में चतुर्युगियों की पुनरावृत्ति (रिपीट( होती है। यह चारों युगों के वर्षों की उपयुक्त संख्या है।

आत्मा ‘अणु-स्वरूप’ मतलब बहुत सूक्ष्म होती है। आत्मा एक जगह रहती है। वह स्थान नहीं घेरती। जीवात्मा निराकार है। नियम सुन लीजिये। जो वस्तु चेतन होती है, वो निराकार होती है। ईश्वर चेतन है या जड़? चेतन। ईश्वर साकार है या निराकार? निराकार। ईश्वर चेतन है, ईश्वर निराकार है। जीवात्मा चेतन है या जड़? उत्तर है- चेतन है। तो वो भी निराकार है, जैसे ईश्वर। और यह प्रकृति जड़ है या चेतन? जड़। प्रकृति जड़ है, तो वो साकार है। दोनों नियम साफ हैं। जो वस्तु चेतन होती है, वो निराकार होती है। जो वस्तु जड़ होती है, वो साकार होती है। प्रकृति जड़ है, वो साकार है। ईश्वर और जीव चेतन हैं, वो दोनों निराकार हैं। मन, आदि जड़ होने के कारण सब साकार हैं। इनका आकार बहुत छोटा है। हम देख नहीं पाते, वो अलग चीज है। लेकिन हैं ये सब साकार। प्रकृति- (सत्त्व, रज, तम( वो भी जड़ हैं, वो भी साकार हैं। महर्षि दयानंद जी ने ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में लिखा है कि- साकार वस्तु से ही साकार वस्तु उत्पन्न हो सकती है। निराकार से साकार नहीं हो सकती। एक संदर्भ में लिखा है- जहाँ पर ये लोग मानते हैं, कि यह जगत ईश्वर का ही रूपांतर है, मतलब ईश्वर से ही यह जगत बना है, इस जगत का रॉ-मटेरियल ईश्वर है। इसके संदर्भ में महर्षि दयांनद जी ने लिखा, कि- ईश्वर साकार है या निराकार? यदि ईश्वर निराकार है, और जगत का उपादान कारण ईश्वर होवे, तो जगत भी निराकार होना चाहिये, परंतु जगत तो साकार है। इससे सि( हुआ, कि इसका रॉ-मटेरियल भी साकार है। जगत साकार है, यह प्रत्यक्ष है। इससे अनुमान हुआ, कि जो इसका उपादान कारण प्रकृति है, वो भी साकार है। उसी प्रकृति से- (साकार सत्, रज, तम से( ही मन, इन्द्रियाँ, बु(ि, शरीर आदि सब पदार्थ बने हैं। इसलिये मन, बु(ि, इन्द्रियाँ जड़ भी हैं, साकार भी हैं।

मृत्यु से भय का कारण है- ‘अविद्या’। सवाल उठता है, कि इस अविद्या को कैसे दूर करें? बताइये, आप शरीर हैं या आत्मा? आत्मा। क्या आत्मा का जन्म होता है? नहीं। आत्मा का जन्म नहीं होता। क्या आत्मा मरती है? नहीं मरती। आत्मा का जन्म भी नहीं होता और आत्मा मरती भी नहीं, तो फिर मरने से डरना क्यों? मृत्यु से डर तो इसलिये लगता है, कि हम शरीर को आत्मा समझने की भूल करते हैं, यह गड़बड़ है। यह सबकी समस्या है। सब लोग शरीर को आत्मा मानते हैं, यही अविद्या है। इस अविद्या को दूर करें। ‘शरीर’ अलग है, ‘आत्मा’ अलग है। शरीर का जन्म होता है, शरीर की मृत्यु होती है। आत्मा का जन्म नहीं होता, आत्मा की मृत्यु नहीं होती है। और हम शरीर नहीं हैं, हम तो हैं आत्मा। तो फिर मरने से क्या डरना? मौत आएगी, तो आएगी। हम आत्मा हैं, शरीर हमारी गाड़ी है, आत्मा इस शरीर में बैठा है। आत्मा शरीर में बैठने से, वो दो चीज नहीं हो जाता। जैसे आप कार में बैठ गए तो क्या आप दो चीज बन गए? आप कार में बैठ गए तो केवल इतना ही तो है, कि आप कार में बैठे हैं। बैठ गए, फिर उतर जायेंगे, अलग हो जायेंगे। ऐसे ही ‘आत्मा’ शरीर में बैठा है, फिर छोड़कर अलग हो जाएगा। इतनी सी बात है। कार में बैठने से व्यक्ति कार नहीं बनता, यथावत् दोनों का संयुक्त स्वरूप नहीं हो जाता। ऐसे ही आत्मा के शरीर में बैठने से शरीर और आत्मा दोनों का मिश्रित (मिक्स( स्वरूप नहीं हो जाता है। हम शरीर को आत्मा मानते हैं अथवा दोनों को मिलाकर एक चीज मानते हैं, यही तो अविद्या है। इसी अविद्या के कारण मृत्यु से डर लगता है।

उपनिषदों में बतलाया है- शरीर एक रथ के समान है। पहले रथ होते थे, आजकल कार होती है। तो चलो कार के उदाहरण से बताएगे। जैसे शरीर है, वैसे कार है। कार में पाँच चीजें हैं। कार का यात्री सेठ-एक, ड्राईवर-दो, स्टेयरिंग-तीन, पहिए-चार और सड़कें पांच। ऐसे ही शरीर में यात्री के समान आत्मा, ड्राइवर के समान बु(ि, स्टेयरिंग-व्हील के समान मन, पहियों के समान इंद्रियाँ और सड़कों के समान विषय हैं। इस तरह से इनमें सम्बन्ध समझना चाहिए।

व्यक्ति के अंदर अच्छे संस्कार भी होते हैं और बुरे संस्कार भी। स जब व्यक्ति अच्छे संस्कार को जगाकर भगवान की स्तुति प्रार्थना-उपासना करता है तो कभी-कभी आतंरिक भावनाएँ जागती हैं। गहरी भावुकता के उन क्षणों में कभी-कभी रोना आ जाता है। उसको एहसास होता है कि, ओह! मैने इतना समय व्यर्थ में खो दिया। मैं संसार के चक्कर में पड़ा रहा। भगवान को याद ही नहीं किया। अब जाकर मुझे होश आया, कि भगवान तो इतना मूल्यवान है। स व्यक्ति सोचता है :- बहुत साल हो गए, पहले से अगर भगवान का ध्यान करता होता, तो मुझे बहुत आनंद मिलता। अब उसको प्रायश्चित्त होता है, पश्चाताप होता है। इस कारण उसको कभी-कभी रोना आता है, आँसू आते हैं। यह कोई बुरी बात नहीं है। ऐसे ही और भी कारण हो सकते हैं। आँसू खुशी में भी आते हैं। भगवान का ध्यान करने से आनंद मिलता है। सात्त्विक वृत्ति बढ़ती है, उससे भी आंसू आते हैं। उनके पीछे पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड( यही रहती है, कि आज मुझे इतना आनंद मिला। यह अब तक मैने क्यों खोया। खुशी के आंसू के पीछे यही कारण होता है। व्यक्ति सोचता है, कि अब ठीक रास्ते पर आ गया हूँ तो उसमें प्रायश्चित्त का भाव जाग्रत होता है। जिससे आँसू आ जाते हैं। वो कोई बुरी बात नहीं है। स शुरू में अगर ऐसा हो, दो, पाँच, सात दिन या पंद्रह दिन तो कोई आपत्ति नहीं है। धीरे-धीरे जब व्यक्ति अभ्यास करता जाएगा, तो वो रोना बंद हो जाएगा। आँसू आने बंद हो जाऐंगे। और व्यक्ति में स्थिरता आ जाएगी।

इसका समाधान हैः- स यदि मनुष्य पुरुषार्थ करता है और उसका फल नहीं मिलता या कम मिलता है, तो निःसंदेह फल देने वाला दोषी है। स यहाँ समाज ने आपको पूरा फल नहीं दिया। नहीं दिया तो कोई बात नहीं, आपका कर्म बेकार नहीं जाएगा। अगर समाज ने, राजा ने, पंचायत ने, आपको कर्म का पूरा फल नहीं दिया और आपका फल बच गया, तो अंत में आपका फल ईश्वर देगा। उस पर पूरा-पक्का विश्वास करें। आपको फल मिलेगा, फल कहीं नहीं जाएगा। स लोग क्या सोचते हैं? हमने अच्छे काम किए, इतनी समाज की सेवा की, इतना दान दिया, इतना पुण्य किया और हमको फल तो मिला ही नहीं। अच्छे कर्म का फल नहीं मिला तो शोर मचाते हैंः- देखो साहब! हमारा कर्म बेकार गया, हमारा फल नहीं मिला। स वे यह नहीं सोचते कि उन्होंने जो बुरे कर्म किए, उसका फल भी तो नहीं मिला। जो गड़बड़ की, जो गलती की, उसका दंड अभी नहीं मिला, तो क्या आगे भविष्य में मिलेगा या नहीं मिलेगा? उसके बारे में आप शोर नहीं करते कि दण्ड क्यों नहीं मिला अभी तक? अगर बुरा फल मिलेगा तो अच्छा भी मिलेगा। दोनों मिलेंगे, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। स आपको अच्छा फल चाहिए कि बुरा? अच्छा चाहिए न। इसलिए अच्छा काम करो, बुरा काम नहीं करना, नहीं तो दंड मिलेगा। बार-बार दोहराता हूँ कि – “दंड के बिना कोई सुधरने वाला नहीं है।” दंड को हमेशा याद रखें, तो ही सुधार होगा।

मुझे भी स्वीकार है कि मोक्ष से वापस तो लौटना पड़ेगा। मोक्ष से लौट कर फिर जन्म लेंगे तो पुनः दुःख आ जायेंगे। आप कहते हैं कि – ”जब लौट कर वापस आएंगे तो फिर मोक्ष में जाने का फायदा ही क्या हुआ?”इस शंका का उत्तर हैः- स मेरा एक प्रश्न है – दोपहर में भूख लगी तो आपने खाना खा लिया। क्या शाम को भूख नहीं लगेगी? यदि शाम को भूख लगेगी, तो फिर दोपहर में खाने का क्या लाभ हुआ? खाना, खाना बेकार हुआ न। बताइए, खाना खाया आपने, वो उपयोगी हुआ कि बेकार गया? उपयोगी हुआ। कारण कि, इससे छह घंटे तक उस भूख के दुःख से छुटकारा हो गया। दोपहर बारह बजे भूख लगी तो आपने यह सोचकर भोजन किया कि शाम को फिर भूख लगेगी तो फिर खा लेंगे। अभी छह घंटे तो कम से कम इस भूख से जान छूटे। स अगर छह घंटे तक भूख के दुःख से छुटकारा पाने के लिए आप भोजन करते हैं, तो इकतीस नील दस खरब चालीस अरब वर्षों तक दुःख से छुटकारा पाने के लिए (मोक्ष के लिए( प्रयास क्यों न करें? करना चाहिए। इसलिए मोक्ष के लिए अभी प्रयास करो। स जब दोबारा भूख लगेगी तो दोबारा खा लेंगे, और जब दोबारा मोक्ष से लौट कर आएंगे तो दोबारा फिर चले जाएंगे। स ऐसा तो नहीं है कि मोक्ष केवल एक ही बार मिलेगा, फिर मिलेगा ही नहीं। भगवान ने कोई रोका थोड़े ही है। वो कहता है- दोबारा फिर कर्म करो, फिर आ जाना मोक्ष में। दोबारा रास्ता खुला है। हम बार-बार मोक्ष में जाएंगे और वहाँ अपना कर्मफल भोगेंगे और फिर वापस आ जाएंगे। फिर दोबारा कर्म करेंगे, फिर चले जाएंगे। इसलिए बार-बार मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।

यदि आत्मा स्थान बदलता है तो हमें पता क्यों नहीं चलता? इसमें मैं इतना ही कहूँगा कि यह व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर ने ऐसी अवस्था कर रखी है कि आत्मा स्थान बदलता है। यहाँ व्यवस्था ईश्वर की है और संचालक स्वयं आत्मा है।

स्थान बदलता है तो हमें पता क्यों नहीं चलता? इसको तो आप छोड़िए कितनी सारी स्थूल बातों का ही हमें पता नहीं चल पा रहा। कैसे हमारे अन्दर भोजन विखण्डन हो रहा है, उससे रक्तादि का निर्माण कैसे हो रहा है, हमारे पूरे शरीर के ऊपर रोम-बाल कितने हैं, नेत्र की संरचना कैसी है और भी बहुत सारी स्थूल बातों को हम नहीं जान पा रहे, जान पाते। और फिर आत्मा का विषय तो अति सूक्ष्म है। हाँ, हो सकता है इस स्थान वाली स्थिति को योगी लोग जान लेते हों।