बार-बार ईश्वर के बारे में चिंतन करें, बार-बार सोचें। हम जी रहें हैं। चौबीस घंटे वायु का प्रयोग करते हैं, श्वास लेते हैं। अगर पाँच मिनट शु( वायु न मिले, तो शायद हमारा शांतिपाठ हो जायेगा। हो जायेगा न। शु( वायु पाँच मिनट न मिले, तो शांतिपाठ (मृत्यु( हो जायेगा। जीना कठिन है। इस तरह से सोचिये । कौन है जो हमारे जीवन की रक्षा कर रहा है। एक-एक मिनट, एक-एक सेकंड कौन हमको यह शु( वायु (ऑक्सीजन( दे रहा है, जिसके कारण हम जी रहे हैं। कौन हमारे लिए हर एक )तु में अलग-अलग सब्जियाँ बनाकर भेज रहा है। अलग-अलग फल बनाकर भेज रहा है। अलग-अलग वनस्पतियाँ, औषधियाँ और तरह-तरह की चीजें बनाकर भेज रहा है। ऐसे ईश्वर के गुणों पर विचार करें। कौन है, जो हमारे कर्मों का हिसाब रख रहा है। एक-एक कर्म का हिसाब रखता है। चौबीस घंटे में हम पता नहीं कितने कर्म करते हैं मन से, वाणी से, शरीर से। कौन है, जो हमारे सारे कर्मों का हिसाब रखता है? कौन है, जो हम पर अन्याय करने वालों को दण्ड देता है? उन अन्यायकारियों से जो हमको नुकसान होता है, हानि होती है, उस नुकसान की पूर्ति करता है, हमारी क्षतिपूर्ति करता है। कम्पन्सेशन देता है। वो कौन है? मनुष्यों में तो कोई नहीं दिखता। और हम जो अच्छे कर्म करते हैं, उन अच्छे कर्मों का फल हमको कौन देता है? हमें मनुष्य जन्म देता है, आगे बार-बार देता है। अनादिकाल से दे रहा है और भविष्य में अनंतकाल तक देता रहेगा। इतने अच्छे-अच्छे लोग संसार में जिसने उत्पन्न किये हैं। अच्छे-अच्छे धार्मिक लोग, देशभक्त लोग, ईमानदार लोग, वीरपुरूष, ऐसे अच्छे-अच्छे साधु, संत, महात्मा, विद्वान लोग, जो धर्म की रक्षा करते हैं, देश की रक्षा करते हैं, दूसरों को सुख देते हैं। सब दुनिया का भला करते हैं। कौन है, उनको भेजने वाला। और यह सब करके भी वो भगवान हमसे कितनी फीस लेता है, कितना शुल्क लेता है? कुछ नहीं। इस तरह से बार-बार सोचें, तो आपके मन में प्रेम बढ़ेगा, रूचि बढ़ेगी। और माता-पिता वाले उदाहरण की बात थी, तो वैसे भी सोचें। जैसे छोटा बच्चा होता है, पन्द्रह दिन का, एक महीने का। उसका सारा काम उसकी माँ ही करती है। खिलाना, पिलाना, सुलाना, जगाना, नहलाना, धुलाना सारा काम उसकी माँ ही करती है। उस बच्चे को तो कुछ होश ही नहीं, वो कुछ कर नहीं सकता। तो उस तरह से भी सोचें। जैसे माता छोटे बालक की सब प्रकार से रक्षा करती है, उसका सारा ध्यान रखती है। ऐसे ही हम छोटे बच्चे की तरह हैं। हमारी बु(ि क्या है, कुछ भी नहीं है। क्या खाना, क्या नहीं खाना, कुछ भी पता नहीं। उल्टा-सीधा खाते रहते हैं। शरीर को बिगाड़ते रहते हैं। और एक लंबी सीमा तक ईश्वर हमारी रक्षा करता रहता है, रोगों से बचाता रहता है। इतनी व्यवस्था उसने हमारे शरीर में कर रखी है। और जब बहुत ज्यादा सीमा पार हो जाती है, अतिक्रमण बहुत हो जाता है, तब जाकर के भगवान हमारे शरीर में कुछ छोटा सा रोग पैदा करता है। और वो भी सावधान करने के लिये। सावधान! बहुत लापरवाही कर ली, जागो, लापरवाही मत करो। जानकारी करो, क्या खाना, क्या नहीं खाना। और उस हिसाब से खाओ-पिओ, और अपने शरीर की रक्षा करो। तो इस तरह से हम बहुत कम जानते हैं। कैसे जीना चाहिये, कैसे सोचना चाहिये, कैसे बोलना चाहिये, कैसे व्यवहार करना चाहिये, कैसे उठना-बैठना चाहिये, बहुत कम जानते हैं। और फिर भी ईश्वर हमको पता नहीं अंदर से कैसे-कैसे सूचना देता रहता है चौबीस घंटे यह उसकी बड़ी कृपा है। इस तरह जब हम सोचते हैं तो हमें लगता है कि हम वैसे ही बच्चे हैं, पन्द्रह दिन के, एक महीने के, दो महीने के और हमारी सब रक्षा भगवान ही कर रहा है। कब, कैसी बु(ि देता है, कब क्या अंदर से सुझाव देता है, और जब हम उसकी बात मान लेते हैं, तो हमारा बहुत अच्छा काम निपट जाता है। हमारा बहुत अच्छा भला हो जाता है। हम अनेक आपत्तियों से, दुर्घटनाओं से बच जाते हैं। इस तरह से सोचें। तो माता-पिता की तरह हमारे अंदर भी रूचि आयेगी, कि जैसे हम माता-पिता को चाहते हैं, उनसे प्रेम करते हैं, उनका उपकार समझते हैं, ऐसे हम ईश्वर का भी उपकार समझेंगे। ऐसा बार-बार सोचें। तो हम उनसे माता-पिता की तरह प्रेम करने की स्थिति भी प्राप्त कर लेंगे।