Our Beliefs | विश्वास (श्रद्धा, विचार , धारणा)

महापुरुषों का जीवन और महान् वाणी




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महर्षि चरक

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महर्षि सुश्रुत

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महर्षि कपिल

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महर्षि भारद्वाज

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महर्षि कणाद

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महर्षि पतंजलि

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महर्षि जैमिनी

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महर्षि वेदव्यास

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महर्षि गौतम

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महर्षि नागार्जुन

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महात्मा विदुर

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आचार्य चाणक्य

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आचार्य आर्यभट्ट

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आचार्य वराहमिहिर

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ओ३म्

ओ३म् (ॐ) ब्रह्माण्ड का नाद है एवं मनुष्य के अन्तर में स्थित ईश्वर का प्रतीक।

ओ३म् का सभी मत सम्प्रदायों में महत्व है। सभी वेद मंत्रो का श्लोको का उच्चारण ओ३म् से ही होता है। ओ३म् ईश्वरीय शक्ति की पहचान है। ईश्वरीय आवाज है। जो उन्होंने बनायीं है। यह परमात्मा का निज नाम है, यही सृष्टि का आधार है। उपनिषद में कहा गया है की ओ३म् ही स्वर के रूप में ईश्वर है। इसलिए हम कही भी जाये मंदिर, कोई देवस्थान, मंत्र, श्लोक, पाठ, शुभ कार्य होते हो, वहाँ ओ३म् का उच्चारण पहले करते है। ओ३म् हर जगह हर वस्तु मनुस्य सभी प्राणी सभी पक्षी में व्यापक है। हम उसे अनुभव कर सकते है। ओ३म् अविनाशी अक्षर है। जिसका जो कोई जाप करता है वह इच्छित वस्तु प्राप्त कर लेता है।

वैज्ञानिको के अनुसार अंतरिक्ष, पृथ्वी, ग्रहमंडल, आकाश गंगा, सभी जगह पर ओ३म् की ध्वनि विध्यमान है। यह एक स्तोत्र, शक्ति, ऊर्जा है। जिसने इस सृष्टि को एक सूत्र में रखा है।

विश्वभर के बुद्धिजीवी भी इसपर रिसर्च कर रहे है। इससे शरीर की बहुत सी व्याधि, विकार दूर हुए है। शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है। गीता में श्री कृष्ण कहते है की जो ओ३म् का उच्चारण करता हुआ, उसके अर्थ को विचार करता हुआ शरीर का त्याग करता है वह परमगति मोक्ष को प्राप्त करता है।

ओ३म् की ध्वनि
(अ) - मुँह के पीछे (अंदर की और) से आता है| यही संस्कृत और इंग्लिश का पहला अक्षर है| जो बोलते बोलते (म्) की तरफ जाता है| बिच में (३) का उच्चारण के समय मुँह के अंदर खुलापन आता है| और अंत में होठ बंद हो जाते है| इसका मतलब है कि बहार की दुनिया से सम्बन्ध को कम कर के, परम सुख (अल्टीमेट हैप्पीनेस) को पाना है|

ऐसे तीन अक्षरों— अ ३ और म् से मिलकर बना है ओ३म्। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ओ३म् की ध्वनि गूंजती रहती है। हमारी और आपके हर श्वास से ओ३म् की ही ध्वनि निकलती है। यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है। माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ओ३म्। किसी भी मंत्र से पहले यदि ओ३म् जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है।

1. ऋग्वेद

ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्रोत है | यही सर्वप्रथम वेद है।

सबसे प्राचीन वेद - ज्ञान हेतु लगभग १० हजार मंत्र । इसमें देवताओं के गुणों का वर्णन और प्रकाश के लिए मन्त्र हैं - सभी कविता-छन्द रूप में।

2. यजुर्वेद

यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं।

यजुस के नाम पर ही वेद का नाम यजुस+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। यज् का अर्थ समर्पण से होता है। पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा), योग, इंद्रिय निग्रह इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है।
इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी।[1] इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। इनमे कई यज्ञों का विवरण हैः अग्निहोत्र अश्वमेध वाजपेय सोमयज्ञ राजसूय अग्निचयन

3. सामवेद

सामवेद भारत के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में से एक है, गीत-संगीत प्रधान है।

प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है
सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि। [1]। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है- सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। [2]।अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।

4. अथर्ववेद

अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है।

इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हैं और उनके इस वेद को प्रमाणिकता स्वंम महादेव शिव की है, ऋषि अथर्व पिछले जन्म मैं एक असुर हरिन्य थे और उन्होंने प्रलय काल मैं जब ब्रह्मा निद्रा मैं थे तो उनके मुख से वेद निकल रहे थे तो असुर हरिन्य ने ब्रम्ह लोक जाकर वेदपान कर लिया था, यह देखकर देवताओं ने हरिन्य की हत्या करने की सोची| हरिन्य ने डरकर भगवान् महादेव की शरण ली, भगवन महादेव ने उसे अगले अगले जन्म मैं ऋषि अथर्व बनकर एक नए वेद लिखने का वरदान दिया था इसी कारण अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हुए|

महर्षि मनु

मनुस्मृति हिन्दू धर्म का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है।

इसे मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह उपदेश के रूप में है जो मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। इसके बाद के धर्मग्रन्थकारों ने मनुस्मृति को एक सन्दर्भ के रूप में स्वीकारते हुए इसका अनुसरण किया है।

मनुस्मृति वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल भारत में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है।

भूमिका: ‘मनुस्मृति’ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसकी गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव ने वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा प्राप्त की है। इसमें प्रश्न केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का नहीं है। मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, किसी भी प्रकार आपसी सहयोग तथा सुरुचिपूर्ण ढंग से हो सके, यह अपेक्षा और आकांक्षा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति में होती है। विदेशों में इस विषय पर पर्याप्त खोज हुई है, तुलनात्मक अध्ययन हुआ है और समालोचनाएँ भी हुई हैं। हिन्दु समाज में तो इसका स्थान वेदत्रयी के उपरांत हैं। मनुस्मृति के बहुत से संस्करण उपलब्ध हैं। कालान्तर में बहुत से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता है।

मनुस्मृति के कुछ चुने हुए श्लोक:
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
अर्थ -
धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अक्रोध)।

महर्षि चरक

चरक महान आर्युवदाचार्थ थे। आप कुषाण सम्राट कनिष्क प्रथम के राजवैद्य थे। कनिष्क प्रथम का काल सन 200का है । आपका जन्म शल्यक्रिया के जनक महर्षि सुश्रुत तथा व्याकरणाचार्य महर्षि पतत्रजलि के भी पूर्व हुआ था । आपका प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक संहिता है। इस ग्रन्थ मूल पाठ वैद्य अग्निवेश ने लिखा था। चरक जी ने उसमें संशोधन कर तथा उसमें नए प्रकरण जोड कर उसे अधिक उपयोगी एवं प्रभावशाली बनाया ।

आपने आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक शोधकिए तथा अनेकों संशोधन आलेख लिखे, जो बादमें चरक संहिता नाम से प्रसिद्ध हुई । चरक संहिता मूल में संस्कृत भाषा में लिखी गई है । वर्तमान में उसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्धहोता है । आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी होने से इसे पाठयक्रम में भी स्थान दिया गया है ।

चरक संहिता के आठ विभाग है ।

(1) सूत्र स्थान
(2) निदानस्थान
(3) विमानस्थान
(4) शारीरस्थान
(5) इन्द्रियस्थान
(6) चिकित्सास्थान
(7) कल्पस्थान
(8) सिद्धिस्थान

इन आठ विभागों में शरीर के भिन्न भिन्न अंगो की बनावट, वनस्पतियों के गुण तथा परिचय आदि का वर्णन है । महर्षि चरक की यह मान्यता थी कि एक चिकित्सक के लिए महज झनी या विद्धान होना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसे दयालु और सदाचारी भी होना चाहिए । चिकित्सक बनने से पूर्व ली जानेवाली प्रतिज्ञाओं का उल्लेख चरक संहिता में मिलता है । वैदिक काल में इन प्रतिज्ञाओं का पालन करना सभी वैद्यों के लिए आवश्यक माना जाता था । चरक संहिता का अनुवाद अरबी तथा युरोपीय भाषाओं में भी हो चुका है । उन उन भाषाओं के विद्धानों ने इस ग्रन्थ पर टीकाएं भी लिखी हैं आयुर्वेद में महर्षि चरक अभूतपूर्व योगदान के लिए ही आपको आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के महान सम्राट की उपाधी से सन्मानित किया गया था ।

महर्षि सुश्रुत

शल्यक्रिया के क्षेत्र में सबेस आगे सुश्रुत का नाम है। आप एक प्रसिद्ध व कुशल शल्य चिकित्सक थे। शल्य का शाब्दिक अर्थ है। शरीर की पीडा। इस पीडा या दर्द का निवारण करना ही शल्य चिकित्सा कही जाती है। अंग्रेजी भाषा मं उसे सर्जरी अथवा ओपरेशन भी कहते है सामान्यतः यह भ्रम है कि शल्यक्रिया का प्रारम्भ युरोप में हुआ था। परन्तु भारत देश में तो यह प्राचीन काल से ही अत्यन्त विकसित रूप में विद्यमान रही है।

शल्यक्रिया का ज्ञान वैसे तो पुरातन काल से ही मानव को था। परन्तु वह विकसित अवस्था में न होने के कारण अत्यन्त पीडादायक प्रक्रिया के रूप में था। उसमें मरण सम्भावना भी अधिक मात्रा में थी। सुश्रुत ही ऐेसे प्रथम चिकित्सक थे जिन्होंने शल्यक्रिया को एक व्यवस्थित स्वरूप दिया। आपने इस विद्या का परिष्कार करके अनेकों मनुष्यों को स्वास्थ्य लाभ देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सुश्रुत महान ऋषि विश्वामित्र के वंशज थे। ऋषि विश्वामित्र भी एक वैज्ञानिक थे। सुश्रुत द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ सुश्रुत संहिता के लिए कहा जाता है कि इस ग्रन्थ में स्वर्ग के देवताओं द्वारा पूजे जानेवाले वैद्यराज धन्वन्तरी के उन उपदेशों का संग्रह है जो उन्होंने सुश्रुत को दिए थे। शल्यचिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुतसंहिता को आज भी प्रमाणभूत माना जाता है।

प्लास्टिक सर्जरी को आज-कल चिकित्सा विज्ञान की एक महत्वपूर्ण उपलब्धिमानी जाती है। अमेरिका के वैज्ञानिक इसका श्रेय लेते हैं। परन्तु सुश्रुत ने अपने इस ग्रन्थ में प्लास्टिक सर्जरी का उल्लेख सैकडों वर्षों पूर्वे ही कर दिया था । इस पद्धति में नाक , कान, ओठ अथवा चेहरे की सुन्दरता बढाने के लिए। उस उस स्थान का मांस दूर करके शरीर के ही किसी भाग का मांस लगाकर उसे सुन्दर रूप दिया जाता है इस पद्धति का आधार लेकर ही प्राचीन काल के लोग अपना रूप लेते थे। सुश्रुत की इस पद्धति का अनुसरण युरोप ने किया। आज विश्वभर में यह पद्धति प्रचलित है। सुश्रुत सुहिता को समय ईसा पूर्व 600 वर्ष का माना जाता है। यह ग्रन्थ मूल संस्कृत भाषा में लिखा गया था। इसा की प्रथम शताब्दि अर्थात् वि.सं. 57 के आसपास सुप्रसिद्ध रसायनवेता नागार्जुन ने उसे पुनः सम्पादित कर नया ही स्वरूप दिया था। महर्षि सुश्रुत अपने विद्यार्थियों को प्रयोग तथा क्रियाविधि से पढाते थे। आप चीरफाड का प्रारम्भिक अभ्यास शाकभाजी और फलो पर कराते थे। इस अभ्यास के पूर्ण हो जाने पर मृत शरीरों पर अभ्यास कराया जाता है वे स्वयं शवों पर ओपरेशन कर दिखाते तथा वहीं विद्यार्थीयों से भी अभ्यास कराते थे। आपने शल्यचिकित्सा के लिए एक सौ से भी अधिक यन्त्रों एवं औजारों का आविष्कार किया।

सुश्रुत संहिता में भिन्न भिन्न प्रकार के वनस्पतियों का भी विश्लेषण करके उसका विस्तार से वर्णन किया है। महर्षि सुश्रुत का मानना था कि चिकित्सक को सैद्धान्तिक और किताबी ज्ञान के स्थान पर प्रयोगात्क ज्ञान में कुशल होना चाहिए।

महर्षि कपिल

महर्षि कपिल के पिता कर्दम ऋषि थे । आपकी माता का नाम मनुपुत्री देवहूति था। महर्षि कपिल का जन्म आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है । आप महान तेजस्वी ऋषि थे । बौद्ध सम्प्रदायियों के अनुसार महर्षि कपिल गौतम ऋषि के वंशज थे। आपके मुख्य शिष्य का नाम आसुरि था। इसका प्रमाण स्वरूप श्लोक है -

 पत्र्चमः कपिलो नामसिद्धेशः काल विलुप्तम् । प्रोवाचसुरये सांख्यं तत्वग्रामविनिर्णयम् ।। 

इसका अर्थ है - काल में विलप्त हो गए सांख्यशास्त्र का उपदेश महर्षि कपिल ने ही सांख्य के सुप्रसिद्ध आचार्य आसुरि का दिया था । आचार्य आसुरि के शिष्य पंचशिख हुए । पंचशिखा के पास से ऋषि जैगीश्रव्य ने शिष्यत्व ग्रहण किया था आचार्यों ने सांख्यदर्शन केा प्रचार प्रसार किया। महर्षि कपिल के मूल ग्रन्थ का नाम षष्टितन्त्र था आपके शिष्य पंचशिख तथा वार्षगण्य ने इस ग्रन्थ पर माष्य लिखे और उसकी व्याख्या की ।

सांख्य दर्शन के माध्यम से महर्षि ने प्रथम बार आत्मा, अनात्मा तथा भौतिकवाद के सूक्ष्म तत्वों केा विस्तृत एवं गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया। आपके मत में मूलभूत दो प्रकार के अनादि तत्व है प्रकृति एवं पुरूष । पुरूष से आत्मा एवं परमात्मा दोनों का ग्रहण होने से मूलभूत अनादि तत्व तीन प्रकार के हुए। प्रकृति भी सत्य , राज एवं तम इन तीन गुणों के समुदाय का नाम है। आगे पांच तन्मात्राओं से पांच स्थूल भूत उत्पन्न 16 पदार्थो ,5 तन्मात्राएं तथा 11 ईन्द्रियां उतपन्न होती हैं आगे पांच तन्मात्राओं से पांच स्थूल भूत उत्पन्न होते है। प्रकृति अनुत्पत्रा है। महतत्व से स्थूलभूतों की रचना को विकृति कहते हैं पुरूष प्रकृति (परमात्मा) का ज्ञान होता है तब वह समस्त दुखों एवं बन्धनों से मुक्त होकर मुक्ति सुख को भोगता है।

बौद्ध दर्शन असत् में से सत् की उत्पत्ति मानता है। परन्तु सांख्य ने घोषित किया कि सत से असत की उत्पत्ति कभी नहीं होती है इसी प्रकार असत से भी सत की उत्पति नहीं हो सकती है। सत्तात्मक कारण द्रव्य से ही कार्य जगत की उत्पति होती है। आधुनिक विज्ञान का भी यही सूत्र है कि शून्य से तो शून्य ही उत्पन्न होगा । मल पदार्थ का कभी नाश नहीं होता । महर्षि कपिल दार्शनिक होनेके साथ साथ वैज्ञानिक भी थे। आपने ब्रह्मान्ड की उत्पत्ति तथा निष्क्रिय उर्जाशक्ति की उपस्थिति को स्पष्ट किया। आप के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी मान्यता दी हैे।

महर्षि भारद्वाज

आचार्य भारद्वाज के पिता महर्षियों में श्रेष्ठ आचार्य बृहस्पति के पुत्र थे । आपकी माता का नाम ममता था । आचार्य बृहस्पति को देवताओें का गुरू माना जाता है ।

एक वैदिक मान्यता के अनुसार जमदग्नि, वसिष्ठ,भारद्वाज,गौतम, वामदेव और अत्रि ये सप्तर्षि है । ‘सप्तानुक्रमणि’ ग्रन्थ के रचयिता कात्यायन के मत में आचार्य भारद्वाज ऋग्वेद के छः मण्डलों के द्रष्टा थे । आप अनेक शास्त्रों के प्रवक्ता तथा उपदेशक भी थे । तैत्तिरीय ब्राह्मण की एक कथा के अनुसार आचार्य भारद्वाज दीर्धायु प्राप्त ऋषि थे । कहा जाता है कि आपका आयुष्य 300 वर्षों से भी अधिक था ।

आचार्य भारद्वाज द्वारा रचित अन्य ग्रन्थों में भारद्वाज शिक्षा भारद्वाज श्रौत, गृह्यसूत्र तथा अंशुमतन्त्र विशेष उल्लेखनीय है । आपको वृहद विमानशास्त्र, आकाश शास्त्र तथा वैमानिक कला सम्बन्धित ग्रन्थ यन्त्र सर्वस्व का प्रणेता भी माना जाता है । इसके अलावा आयुर्वेद पर भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की है । चरक संहिता में वर्णित वैद्यों के एक विशाल सम्मेलन में जिन महान् 11 आचार्यों ने भाग लिया था, उनमें आचार्य भारद्वाज जी का भी नाम है ।

महर्षि कणाद

परमात्मा विश्व का निर्माण, और संचालन की प्रक्रिया के विषयों में हमारे देश में अनादि काल से चिन्तन होता रहा है । इस चिन्तन द्वारा महर्षियों को जो अनुभूति हुई, उसे ही ‘दर्शन’ का नाम दिया गया है । भारतीय वैदिक दर्शन के छः अंग है न्याय, मीमांसा, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदान्त । उनमें से वैशेषिक दर्शन के प्रर्वतक महर्षि कणाद थे ।

वायु पुराण के अनुसार महर्षि कणाद द्वारका के समीप प्रभासपाटन में जन्में थे और सोमशर्मा के शिष्य थे । आपका सच्चा नाम उलुक मुनि था ऐसा माना जाता है । आप कश्यप गौत्र के थे । विद्वानों के अनुसार महर्षि कणाद का समय ईसा से 400 वर्ष पूर्व का माना जाता है । यद्यपि कुछ विद्धान् आप को बुद्ध के पूर्व हुए मानते हैं । आप खेत में गिरे हुए अन्न के कण (दाने) चुन चुन कर अपनी भूख का निवारण करते थे । इस प्रकार अनाज के कण र्किंणुअणु के सिद्धान्त के प्रवर्तक होने से आप कणाद कहे गए ।

आपका वैशैषिक सूत्र ही वैशैषिक दर्शन का मूल ग्रन्थ है,प्रशस्तपाद ने उसके उपर पदार्थ धर्मसंग्रह नामक भाष्य लिखा था । वैशैषिक दर्शन का आधार परमाणवाद है । किसी झरोखे की जाली में से आनेवाले धूप के सूर्यकिरणों में उडते हुए दीखनेवाले सूक्ष्म कण का साठवां भाग परमाणु कहलता ळै । यह परमाणु नित्य हैं अपनी विशेषता के कारण प्रत्येक पदार्थ में उसका भिन्न भिन्न अस्तित्व होता है । इन विशेषताओं का विवेचन करने के कारण इस दर्शन का विशेषिक दर्शन कहा गया ।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार विश्व सात पदार्थों में विभक्त है द्रव्य, गुण, कर्म, सामन्य, विशेष, समवाय, ओर अभाव । महर्षि कणाद के मत में विश्व का निर्माण नौ द्रव्यों से हुआ है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल , दिशा, मन और आत्मा ।

इस ब्रह्माण्ड में 24 गुण हें रूप, रस, गन्ध, शब्द,स्पर्श, सुख, दुःख, ईच्छा,द्वेष, प्रयत्न , संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व,अरपत्व, गुरूत्व,द्रवत्व, बुद्धि, स्नेह, संस्कार, धर्म और अधर्म । कर्म के पांच प्रकार है उत्क्षेपण, अवषेक्षण, आकुंचन, प्रसरण ओर गमन । अनेक वस्तुओं में समानता के आधार से उत्पन्न एकतव बुद्धि के आश्रय को सामान्य कहते है जैसे की मनुष्यत्व ।

इस ग्रन्थ में कणाद ऋषि ने धर्म का लक्षण इस प्रकार दर्शाया है ।

यतोभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः।

अर्थात् जिसमें अभ्युदय (इस लोक के सुख व समृद्धि) तथा निःश्रेयस ( पारमार्थिर्क  मोक्ष) दोनों की सिद्धि प्राप्त की जाए वह धर्म है ।

महर्षि पतंजलि

योगसूत्र के रचनाकार पतंजलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में चर्चा में थे। इनका जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था लेकिन कहते हैं कि ये काशी में नागकूप में बस गए थे। यह भी माना जाता है कि वे व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे।

महर्षि पतंजलि ने योगशास्त्र की रचना की उनके द्वारे बताई गयी योग क्रियाओ द्वारा शारीरिक संतुलन, आत्मिक अनुशासन और श्वास-साधना द्वारा शारीरिक पुष्ट एवं निरोग बनाया जा सकता है। उनके योग-ज्ञान से भारत ने विश्व के प्राय: सभी देशो को प्रभावित किया है। (1) ज्ञानयोग, (2) कर्मयोग, (3) हठयोग, योग के लिए उन्होने आठ आधार माने है। जिसमे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधी, उनके अनुसार, चित्तवृत्तियो के निरोध को ही योग कहते है। योग से शारीरिक और अध्यमिक विकास होता है।

योग क्रिया मे जड़-चेतन सभी जुड़े होते है। योग पूरा करने के लिए प्रकृति की सारी शक्तिया सहयोग देती है। बिना एकाग्रत, बिना समाधि और बिना सब शक्तियो के संतुलन के योग-साधना संभव नही है। विधयालय मे छात्रो को पाश्चयात ढंग से कराए जाने वाले व्यायाम अथवा शारीरिक शिक्षा और योग मे ज़मीन आसमान का फ़र्क है। पाश्चयात शारीरिक शिक्षा मे केवल शरीर की उन्नति और मासपेशियो को पुष्ट बनाने मे बल दिया जाता है। जबकि योग मे शरीर, मन और आत्मा एवं उसके प्रत्येक अवयव, परमाणु और अंग के विकास को महत्व दिया जाता है।
अब धीरे-धीरे विद्यालायो मे योग को भी महत्व दिया जाने लगा है। अनेक बाहर के देशो ने भी भारत के योग-विज्ञान को अपनाया है। प्रथम भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने भी अपनी छमता का श्रेय योग को ही दिया था भारत मे सभी अवतार, ऋषि, मुनि, साधक और साधु योग से अनुशासित रहे है।

श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम और श्री कृष्ण को योगेश्वर कहा गया है। गौतम बुध और महावीर स्वामी ने भी योग साधना की थी महात्मा गाँधी और तिलक योग के कर्म-पछ के समर्थक थे| योग शब्द (यूज) धातु से उत्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ है। जोड़. मेल तथा एकत्र अवस्थिति, योग द्वारा जीव अपनी अंत: वृतीयो को अनुशासित कर आत्म समर्पणद्वारा परमात्मा का अनुभव कर सकता है। योग चित्तवृत्तियो के निरोध एवं आत्मा और परमात्मा के मिलन मे भी सहायक है।

पहले से ऋग्वेद, अर्थवेद और उपनिषदो मे बिखरे हुए योग के शिद्धांतो को पंतजाली ने दार्शनिक रूप प्रदान किया, जैन धर्म और बोध धर्म मे योग के महत्व को स्वीकार किया गया, गोरखनाथ, कबीर और नानक ने भी योग की प्रशंसा बारंबार अपने काव्य अथवा उपदेशो मे की है। पतंजलि के योग का प्रभाव तांत्रिक संप्रदायो और सिख गुरुओ पर भी पड़ा, जिन्होने इसे अपनाया था, स्वामी विवेकानंद, शिवानंद और योगनांद ने योग प्रचार यूरोप के देशो मे किया और काई योग-केंद्र चल रहे है। महेश योगी के लखो विदेशी शिष्य योग की शिक्षा प्राप्त करने भारत आते है।

इस तरह पतंजलि के योग का सम्मान प्राचीन काल से अबतक निरंतर किया जा रहा है। 21 जून को पूरे विश्व मे योग दिवस मनाया जाता है जिसकी घोसना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितंबर 2014 की जिसे संयुक्त रास्ट्र संघ ने मान्यता दे दी। भारतिय विज्ञान संस्कृति और योगशास्त्र के जनक महर्षि पतंजलि का नाम हमेशा अमर है।

महर्षि जैमिनी

मीमांशा शास्त्र के रचियता महर्षि जैमिनी का समय ५००० वर्ष पूर्व का है। कृष्ण द्वैपायन व्यास देव के वह शिष्य थे। उनसे ऋषि ने सामवेद और महाभारत की शिक्षा पायी थी। आपके पुत्र का नाम सुमुन्तु था। ऋषि ने दर्शन की रचना के अतिरिक्त "भारत संहिता" की भी रचना की थी जो "जैमिन भारत" के नाम से प्रसिद्ध है।

महर्षि रचित मीमांशा सूत्र २२ अध्याहो में विभक्त है। ये २२ अध्याय, १२ विषयो पर आधारित है पूर्वमीमांसा का यह सूत्रग्रंथ है। जिनके नाम हैं-- धर्म, कर्मभेद, शेषत्व, प्रयोज्य-प्रयोजक-भाव, क्रम, अधिकार, सामान्यातिदेश, विशेषातिदेश, अह, बाध-अभ्युच्चय, तंत्र तथा आवाप। इसलिये इस ग्रंथ को लोग "द्वादश लक्षणी" भी कहते हैं।

ऋषि के सूत्रों का मुख्य विषय धर्म के स्वरुप की होज करना है। उन्होंने समाज धर्म के विश्लेषण को अपना लक्ष्य बनाया है तथा धर्म की परिभाषा देते हुए कहा है की, धर्म वह अर्थ या क्रिया है जिनके करने से अभिप्रेत फल की प्राप्ति होती है अर्थात धर्म शब्द किसी सम्प्रदाय से न जुड़कर वे प्रतिपादित कर्तव्यों के लिए है। महर्षि ने वैदिक कर्मो के भेद स्पष्ट करने वाले शब्तान्तर, अभ्यास, संख्या, गुण, प्रकारणांतर आदि का वर्णन, यज्ञो का निरूपण, गुण, प्रकारणांतर आदि का वर्णन और उनकी विशेषता, वैदिक वाक्य, वेद शब्द और उनके अर्थ संबधित विस्तार से विवेचन किया है।

महर्षि वेदव्यास

महर्षि वेदव्यास वैदिक काल के महान ऋषियों में से एक थे वेद व्यास जी महाभारत ग्रंथ के रचयिता तथा उन घटनाओं के साक्षी भी रहे जिन्होंने युग परिवर्तन किया. मुनि वेदव्यास जी धार्मिक ग्रंथों एवं वेदों के ज्ञाता थे वह एक महान विद्वान और मंत्र दृटा थे. उनकी विज्ञता द्वारा ही महाभारत जैसे ग्रंथ की रचना संभव हो पाई. पौराणिक युग की महान विभूति तथा साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ माना जाता है. वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद के संस्थापक रहे वेदव्यास जी महान ऋषि पराशर के पुत्र थे, पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव. गुरु पूर्णिमा का पर्व वेद व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में भी मनाया जाता है.

द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर इन्होंने वेदों के विभाग प्रस्तुत किए हैं. प्रथम द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए हैं और इस तरह से इन्द्र, धनजंय, सूर्य, मृत्यु, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए हैं. अट्ठाइस बार वेदों का विभाजन किया गया तथा व्यास जी ने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की थी.

वेदव्यास जी योग शक्तिसम्पन्न और ऋषि व्यास त्रिकालदर्शी ऋषि थे. वेदों का विस्तार करने के कारण इन्हें वेदव्यास कहा गया. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान इन्होंने अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को प्रदान किया वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ होने के कारण ही वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को सरल रूप और कथा माध्यम से व्यक्त किया गया. वेद व्यास जी के शिष्यों ने वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं. इन्होंने वेदों के विस्तार के साथ महाभारत, अठारह पुराणों ता ब्रह्मसूत्रका प्रणयन किया| व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है. पृथ्वी पर विभिन्न युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए अवतीर्ण होते हैं. भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति में व्यासजी का प्रमुख स्थान रहा है.

महर्षि गौतम

नीयते विवशितार्थ: अनेन इति न्याय:। जिन साधनो से हमें ज्ञेय तत्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है उन्हें न्याय कहा जाता है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम थे जिनका न्याय सूत्र - इस दर्शन का सबसे प्राचीन एंव प्रसिद्ध ग्रन्थ है। न्याय दर्शन को आन्वीक्षि, हेतु शाश्त्र, हेतु विद्या, वाद विद्या, प्राण शास्त्र, वाकोवाक्य, विमांश आदि भिन्न नामो से जाना जाता है।

आपको मिथिला के निवासी कहा जाता है। ऋषि गौतम की पत्नी का नाम अहल्या और पुत्र तथा पुत्री के नाम शतानंद व् विजया था। आपके द्वारा रचित न्याय शास्त्र केवक प्रमाण, तर्क आदि के नियमो को निश्चित करनेवाला सस्त्र न होकर आत्मा, इन्द्रिय, सिखानेवाला शास्त्र, विभिन नाम से सारे देश काल की सीमाओं का उलघन कर विश्वभर में लोक व्यवहार में भी बहुत उपयोगी हो गया है। अनुमान की पूरी प्रक्रिया ( जिसमे प्रतिज्ञा, हेतु, उदहारण, उपनय, तथा निगमन, पांचो अवयव शामिल है। इसका आधार यही न्याय दर्शन है। आपका यह न्याय शास्त्र हेतु विद्या और आत्मविद्या इन दोनों अर्थो के आंविष्की सिद्ध हुआ है।

महर्षि नागार्जुन

प्राचीन भारत ने गणित तथा ज्योतिष के क्षेत्रों में नए-नए संशोधन करके विश्व की ज्ञान सम्पदा में अभिवृद्धि करके उसे समृद्ध बनाया है। इतना ही नहीं अपितु रसायन शास्त्र जैसे अत्यन्त आधुनिक क्षेत्र में भी अभूतपूर्व योगदान प्रदान किया है। नागार्जुन ऐसे ही एक प्रसिद्ध रसायन शास्त्री थे। छत्तीसगढ के रायपुर जिले में पैरी नदी के तट पर बसे बालूका ग्राम में नागार्जुन का जन्म हुआ था। सातपुडा की सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं कीह तलहटी में स्थित यह बालु का ग्राम नागार्जुन की जन्मभूमि था। आपके पिता कौंडिल्य गोत्र में जन्में हुए दक्षिणात्य ब्राह्मण थे। वे अत्यन्त सात्विक शिवभक्त एवं कर्मकाण्डी सज्जन थे।

बालक नागार्जुन जन्म से ही अत्यन्त प्रभावशाली था। इसलिए अतीत शीध्रता से अपने वेद-वेदांगों का अभ्यास पूर्ण कर लिया। बडे होकर आप श्रीपुर- जो वर्तमान में सिरपुर का नाम मात्र गांव ही रह गया है के विद्यालय में अभ्यास करने गए थे। यह बात वि.सं. 57 अर्थात् ईसा की प्रथम सताब्दि की है। उस समय सिरपुर महाकौशल की राजधनी थी। धन-धान्य से समृद्ध इस नगर में एक विश्वविद्यालय भी था, जहां देश-विदेश के विद्यार्थी अभ्यास करने आते थे। नागार्जुन ने यहां बौद्ध धर्म का अभ्यास किया और बौद्ध धर्म की दीक्षा भी ली । आपकी प्रभावशाली प्रतिभा के कारण इसी विश्वविद्यालय में अभ्यास पूर्ण करने लगे। इस समय में महाकौशल में भयंकर अकाल पडा। बारह वर्षों तक वर्षा न होने के कारण प्रजा भूख से मरने लगी । तब यहां के राजा आर्यदेवने नागार्जुन से इस समस्या को हल करेन के लिए सुझाव माँगा था। क्योंकि नागार्जुन रसायनशास्त्री थे, आपने इस समस्या पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना प्रारम्भ किया। आप कुछ दिनों के लिए एकान्तवास में चले गए। एकान्तवास के कुछ दिनों पश्चात् आपने राजा को संदेश भिजवाया कि उनके राज्य में जितना तांबा ईकटढा हेा सकता है उसे वे आश्रम में भेज दें। राजा ने नागार्जुन ने जब राजा राजा को आश्रम में बुलाया तब आपके समक्ष सोने का विशाल ढेर हो गया था। नागार्जुन ने राजा को कहा कि वे इस सोने को ले जाकर अन्य देशों मेें बेचकर अन्न खरीदकर प्रजा मं बांटने का कार्य करें । इस प्रकार नागार्जुन ने रासायनशास्त्र की अपनी विशेषता के आधार पर भीषण अकाल की समस्या का समाधान किया।

यह तो निश्चित है कि नागार्जुन एक महान वैज्ञानिक थे। आपने अनेक भिन्न श्रेणी के धातुओं को सोने में परिवर्तन करेन की पद्धति का संशोधन किया था। आपके रचे हुए रसहृदय नामक ग्रंथ मं इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। नागार्जुन ने आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत रचित सुश्रुतसंहिता का संपादन कर उसमें नए अध्याय बढाए थे। आपके रसायन शास्त्र के क्षेत्र में रचित ग्रंथ इस प्रकार है (1) रस हृदय (2)रस रत्नाकर (3)रसेन्द्र मंगल । चिकित्सा के क्षेत्र में भी आपका योगदान उल्लेखनीय है। इस क्षेत्र में आपके मुख्य ग्रंथ इस प्रकार है (1)आरोग्य मंजरी (2)कक्ष कन्नतंत्र (3)योगाष्टक । आपने पारे का अष्किार किया । उसमें भस्म बनानें की पद्धति को भी ढूंढ लियां आप मानते दार्शनिक भी थे। आपका दर्शन शून्यवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आपने वैदिक और बौद्ध दर्शन में समन्वय करने का भी प्रयास किया है।

महात्मा विदुर

महाभारत के केंद्रीय पत्रों में स्थान रखने वाले ऐसे महात्मा विदुर का जन्म मुनि व्यास के वियोग द्वारा एक दासी के गर्भ से हुआ था। विदुर सत्यभाषी, न्यायप्रिय एंव प्रखर विद्वान थे। वे हस्तिनापुर राजपरिवार के सदस्य होकर भी दासी पुत्र के नाते अधिकार रूप में कुछ भी कह पाने की दशा में नहीं थे। यह तो राजपरिवार का अनुग्रह और विदुर का तटस्थ सत्य स्थापन, ज्ञान और धर्म में रूचि का प्रभाव था की सामान्य होकर भी उन्हें विशिष्ट रूप में सदैव सम्मान मिला। हस्तिनापुर में कौरव-पांडव की गतिविशियो को उन्होंने सदा सत्य एंव न्यायकारिता में तोलने की बहुत मेहनत की।

विदुरजी का सुप्रसिद्ध ग्रंथ "विदुर निति" सभी लोगो के लिए प्रेरणादायक है। वास्तव में वह महाभारत युद्ध से पूर्व युद्ध के परिणाम के प्रति शक्ति हस्तिनापुर के महाराजा धृतराष्ट्र के साथ उनका संवाद है। व्यक्ति की अपेक्षाओं से जुड़कर अनेकबार नितांत व्यक्तिगत, एकेन्द्रिय और स्वार्थी हो जाता है वही व्येक्तिक अपेक्षाओं के दायरे से बहार आकर एक को अनेक के साथ तोड़कर, सत्य और असत्य का विचार करते हुए समष्टि भाव से सामाजिक, केंद्रीय या बहुकेन्द्रिय होकर परार्थी हो जाता है।

विदुर निति ग्रन्थ युद्ध की निति ही नहीं बल्कि जीवन प्रेम, जीवन व्यव्हार की निति के रूप में अपना विशेष स्थान रखता है। जीवन के अंतिम दिनों में महात्मा विदुर ने वनवास ग्रहण किया तथा वन में ही उनकी मृत्यु है। हिंदी निति काव्य पर विदुर के कथनो एंव सिधान्तो का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

आचार्य चाणक्य

आचार्य चाणकय का जन्म इसा पूर्व ३७५ में हुआ था। उनका नाम विष्णुगुप्त था। किन्तु कुटिल राजनीती के पुरस्कर्ता होने से वे कौटिल्य नाम से सुप्रसिद्ध हुए तथा कौटिल्य गोत्र के होने से उनको कौटिल्य कहा गया। तथा विप्र पिता चणक के नाम से चाणक्य नाम से जाने गए। उस समय के महान शिक्षा केंद्र तक्षशिला में आचार्य चाणक्य ने शिक्षा पाई और १४ वर्ष के अध्ययन के बाद २६ वर्ष के आयु में उन्होंने शिक्षण कार्य भी किया।

चाणक्य देश की अखंडता के अभिलाषी थे इसलिए उन्होंने चन्द्रगुप्त यूनानी आक्रमकारियों को भारत से बाहर निकलवा दिया और नंदवंश के अत्याचारों से पीड़ित प्रजा को मुक्ति दिलाई। आचार्य चाणकय की तीन सुप्रसिद्ध ग्रंथ रचनाये अति लोकप्रिय है। कौटिल्य अर्थशास्त्र, राजनीती और चाणकय सूत्र। अर्थशास्त्र में 15 अधिकरणों, १८० प्रकरण तथा १५० अध्याय है। जिसमे श्लोक और गद्यपंक्तिया भी है। राज्य की स्थापना, किल्ला निर्माण, अधिकारी मंत्रियो की पसंदगी, मंत्रणाए, गुप्तचर सेना, युद्ध और उसके प्रकार, विजय - पराजय कई अनुरूप राजा और प्रजा के धर्म दंडनीति, राजा-प्रजा के कर्त्तव्य, शाशन व्यवस्था आदि विषयो का सविस्तार आलेखन है।

उनका दूसरा मूलयवान रजिनित ग्रन्थ १७ अध्याय, ३०० सखलोको में राजा और प्रजा के सदाचार के नियमो तथा विवेक - विनय और बुधिषिक्त की बातो से अत्ययन्त सुन्दर शैली में गुंथा हुआ है। चाणक्य के तीसरे ग्रन्थ नीतिसूत्र में निति और धर्म का वर्णन है। तदोपरांत समाज, परिवार, व्यव्हार, विद्या, विनय, धन, चतुराई, दांपत्य जीवन, प्रेम, तप, शील, सौन्दर्य, निर्धनता, शत्रु, मित्र आदि अनेक विषयो को सूत्रों में पिरोया है। इन्हे सीखनेवाले प्रत्येक व्यक्ति का जीवन सत्य, सौन्दर्यान्वन और उज्जवल बनेगा। चाणक्य के उन ग्रंथो को आधुनिक समय में उद्योगगृहो, राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उपयोगी मैनेजमेंट के सिधान्तो के ग्रन्थ के रूप में विश्वस्तर पर स्वीकृति मिली है। उनका कूटनीति नमक नाटक भी लिखा गया है। उनके दिए गए निम्न विचार अत्यंत प्रेणादायी है।

१] समय को पहचानना ही मनुष्य के सिखने की सर्वोत्तम कला है।

२] इंसान की तार्कि और विनाश उनके स्वयं के व्यवहार पर निर्भर करता है।

३] भाग्य पुरुषार्थ का दास है अर्थात पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य अनुकूल हो जाता है।

४] जो भी मनुष्य अपनी संतान को शिक्षित नहीं कर सकता वह पिता और माता सत्रु सामान है क्योकि जैसे हंस झुंड में बगुला शोभा नहीं देता वैसे ही वह बालक सभ में शोभा नहीं देता इसलिए अपने बचो को उत्तम शिक्षा से संपूर्ण बनाना चाहिए।

जीवनपयोगी बाते:-
१] सही समय

२] आपके ऊर्जा स्त्रोत्र

३] सही ठिकाना

४] पैसे कमाने के सही साधन

५] सही मित्र

६] पैसे खर्च करने के सही तरीके



कुटिल गोत्रोत्पन्न आचार्य चणक ने अपने पुत्र का नाम विष्णुगुप्त रखा था। कालान्तर में चणक आचार्य के पुत्र विष्णुगुप्त चाणक्य नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका समय 322 या 325 वर्ष का माना जाता है। इनका जन्म मगधसाम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र में हुआ था। तत्कालीन मगधसम्राट धनान्द्र के अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाने के कारण आचार्य चाणक्य के राजबन्दी बना लिया गया वही इनकी मृत्यु हो गई। कुछ दिनों पश्चात् इनके माताजी के भी देहान्त के उपरान्त विष्णुगुप्त तक्षशिला में आ गए। वहीं अर्थशास्त्र विषय का अध्ययन कर आचार्य बने। उस समय तक्षशिला विश्व का सर्वश्रेष्ठ विद्याकेन्द्र के रूप में विकसित था। यहाँ एशिया, यूरोप एवं आफिकी महाद्वीपों से छात्र अध्ययननार्थ आया करते थे।

सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व भारत छोटे-छोटे गणराज्यों में विभक्त था। विश्व विजेता बनने की ईच्छा से सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। मगधसम्राट से सिकन्दर के विरूद्ध सामरिक सहाय की याचना करने पर घमण्ड में चूर धनानन्द ने आचार्य का अपमान किया था। उसी अत्याचारी सम्राट् को पतच्यु करने तक अपनी शिखा में गांठ नहीं लगाउंगा की प्रतिज्ञा आपने की थी । नन्दवंश का विनाश पर चन्द्रगुप्त को गन्धार से लेके समस्त उतरापथ और दक्षिण में सिन्धुतट तक महान् चक्रवर्ती राज्य का सम्राट् आपने बना दिया था। इतने बडे साम्राज्य का महामन्त्री होने पर भी आपका रहन - सहन विरक्त साधुओं जैसा ही था। मुद्राराक्षस नाटक के एक श्लोक के अनुसार उनके जीर्ण - शीर्ण कुटियानुमा झोंपडे में एक और गोबर के उपलों को तोडने के लिए एक पत्थर रखा था। दूसरी और शिष्यों द्वारा लाई गई कुशा (घास) का ढेर रखा था। छत पर समिधाएं सूखने के लिए डाली गई थी, जिसके भार से छत झुक गई थी।

आचार्य चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ थे। राजनीति में साम, दाम, दण्ड, भेद नीति के समर्थक थे। वे एक चतुर चिकित्सक तथा रसायन शास्त्र के ज्ञाता थे । अर्थशास्त्र में अनेक रासायनिक शस्त्रों के निर्माण एवं प्रयोग विधिदेखने तथा रसायनशास्त्र के ज्ञाता थे। अर्थशास्त्र में अनेक रासायनिक शस्त्रों के निर्माण एवें प्रयोग विधिदेखने को मिलती है। इन शस्त्रों के द्वारा अग्निकाण्ड, मुर्छा, जागरण, निद्रा, आलस्य, उन्माद, और भ्रमादि उत्पन्न किए जा सकते हैं। आचार्य चाणक्य द्वारा लिखित साहित्य में कोटेलीय सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके अलावा 2 वृद्धचाणक्य 3 चाणकय नीतिशास्त्र 4 लघुचाणक्य 5 चाणकय राजनीतिशास्त्र आदि ग्रन्थों की आपने रचना की है। आज भी आचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ कौटलीय अर्थशास्त्र राजनीति विषय की विष्व श्रेष्ठ पुस्तक है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकर, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करती योग्य है।

आचार्य आर्यभट्ट

आर्यभट्ट का जन्म वि.सं. 533 अथार्त् सन् 476 में हुआ था। यह समय भारत का सुवर्णयुग था। मगधशासक गुप्त साम्राज्य के निद्रर्शन में समग्र भारत बहुमुखी प्रगति में विश्व में सबसे अग्र स्थान पर था।

आर्यभटट का जन्म स्थान पटना अर्थात प्राचीन कालीन मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र के समीप कुसुमपुर नामक ग्राम था। आर्यभटट सुप्रसिद्ध गणितज्ञ तथा प्रखर ज्योतिषी थे। खगोल विज्ञान पर भी आपका प्रभुत्व था।

आर्यभटट के सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम आर्यभटटीय है। इस ग्रन्थ की रचना आपने वि.सं. 556 (ई.सन. 499) में की । यह ग्रन्थ छन्दोबद्ध है और चार विभागों में विभक्त है। यह ग्रन्थ सूत्रशैली में है। किसी सिद्धान्त को अत्यन्त संक्षेप में प्रतिपादन करना सुत्रशैली कहाती हैै। इसे हम गागर में सागर की उपमा देते है। उदाहरण के लिए एक ही श्लोक में गणित के पांच नियमों का समावेश हो जाता है। आर्यभटट के चतुर्थ विभाग का नाम गोलपाद है उसमें केवल 11 ही श्लोक हैं किन्तु उन 11 श्लोको में सम्पूर्ण सूर्य सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया है।

आर्यभटट त्रिकोणमिति के भी आविष्कर्ता थे। आपने त्रिकोणमिति के अनेक सूत्रों का संशोधन किया है। आपने ग्रन्थ आर्यभटट में प्रथम बार त्रिकोणमिति का उल्लेख मिलता है। आर्यभटट प्रथम व्यक्ति थे जिन्होने गणित में पाई का प्रयोग किया । आपने ही सर्वप्रथम सारणियों का प्रयोग किया। आपके द्वारा प्रतिपादित सूत्र और नियम वर्तमान में गणित के पाठयक्रम में पढाए जाते हैं।

आर्यभटट ने ही प्रथम बार दिखाया कि पृथ्वी का आकार गोल है और वह अपने धुरी पर चक्कर लगाती है। आपने नक्षत्रों के परिभ्रमण का भी विवेचन किया है आने सूर्य सिद्धान्त नामक ग्रन्थ में ग्रहण के कारणों का सूक्ष़्म विवेचन करते हुए ऐसा स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण राहु और केतु नामक राक्षसों द्वारा ग्रसित होने से नहीं अपितु चन्द्रमा अथवा पृथ्वी की छाया का परिणाम है। आपने जो वर्षमान निश्चय किया है वह युनानी ज्योतिषी टालमी द्वारा निश्चित किए हुए काल की अपेक्षा स्पष्ट है। आर्यभटट की गिनती अनुसार वर्ष में 365. 2586805 दिवस होते हैं। इससे स्पष्ट होते हैं कि अन्य देशों के ज्योतिषियों की अपेक्षा आर्यभटट की गिनती आधुनिक कालगणना के साथे सार्वाधिक साम्य रखती है। आर्यभटट का ज्योतिष - विज्ञान पर भी पूर्ण प्रभुत्व था। आप स्वयं भी एक विद्धान ज्योतिषी थे। आपने ज्योतिष - गणित और अंकगणित का समन्वय किया। आपने गणित के ऐसे सूत्र दिए जिनसे त्रिकोण का क्षेत्रफल, वृत्त , शंकु, गोलाकार आदि के क्षेत्रफल सरलता से जाने सकते हैं।

आर्यभटट द्वारा किए गए समग्र शोधका वर्णन (1) आर्यभटटीय (2) दंशगीतिका (3)तन्त्र आदि ग्रन्थों में मिलता है। महान ज्योतिषी तथा गणितज्ञ आर्यभटट की प्रसिद्धि भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी है।

आचार्य वराहमिहिर

वराहमिहिर का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जयिनी नामक नगर में हुआ था। आपका जन्मकाल सन् 499 अर्थात् वि.स.. 556 से आस-पास होने का अनुमान किया जाता है। आपके पिता आदित्यदास तथा माता सत्यवती थी। सम्राट विक्रमादित्य आपके ज्योतिष् ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित थे। यही कारण है। सम्राट ने अपने दरबार में नवरत्नों में उन्हें स्थान दिया था। इनके अलावा विक्रमादित्य के नवरत्नों में कालिदास, वैतालभट्ट, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, घरखर्पक, वररूचि एवं शंकु थे।

वराहमिहिर महान् गणितज्ञ आर्यभट्ट के समकालीन उनसे 24 वर्ष छोटे थे। आपने ज्योतिष के क्ष्ेात्र में अनेक नए शोधकिए। आपने ज्योतिष के अनेक ग्रन्थों की रचना रचना भी की थी। आपका प्रसिद्ध ग्रन्थ पंच सिद्धान्त है। ज्योतिष विषय के इस ग्रन्थ में वराहमिहिर ने ज्योतिष के प्राचीन सिद्धान्तों के महत्व के साथ साथ नए शोधविषय भी प्रतिपादित के साथ साथ नए शोधविषय भी प्रतिपादित किए है । 562 वि. सं. अर्थात सन 505 में इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी ऐसा माना जाता है।

वराहमिहिर ज्यातिष के साथ साथ खगोल विज्ञान के भी विद्धान थे। इस शास्त्र को आज कल एस्ट्रोनोमी कहा जाता है पंचसिद्धान्त के प्रथम भाग में खगोल विज्ञान पर विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं।

वराहमिहिर ने सर्वप्रथम प्रतिपादित किया था। कि पृथ्वी का आकार गोल है। वराहमिहिर के समय में भारत और यूनान के बीच में धनिष्ठ मैत्री थी। यूनान के लोग विज्ञान में बहुत ही प्रगति कर रहे थे। क्योंकि वराहमिहिर जिझासु और अभ्यासशील थे इसलिए उन्होने यूनानी संस्कृति तथा ज्योतिष का गहराई से अध्ययन किया। आप यूनानी विद्धानों के विषय में लिखते है यूनानी लोग आदरपात्र हे, कारण कि वे हम सबसे आगे है और विज्ञान में बहुत ही आगे हैं। पन्चसिद्धान्त के अलावा भी आपके दो महत्तवपूर्ण ग्रन्थ वृहद् जातक तथा वृहत संहिता है। इस ग्रन्थों में भौतिकशास्त्र, भूगोल, नक्षत्रविद्या, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिशास्त्र आदि के साथ-साथ तात्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, परस्थितियों का वर्णन भी मिलता है। इन ग्रन्थों द्वारा हमें प्राचीन भारत के वैज्ञानिक शोधों के विषय में जानने को मिलता है।

वराहमिहिर का वनस्पतिशास्त्र पर भी अदभुत प्रभुत्व था। आपने पौधों पर होनेवाले रोगों और उनकी रोकथाम के क्षेत्र में बहुत बडा कर्या किया है। गुप्त काल के इन ज्योतिषों (वराहमिहिर, आर्यभटट, ब्रह्मगुप्त) ने यह जान लिया था कि ग्रह उपग्रह आदि नक्षत्रों से परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। इतना ही नहीं पृथ्वी की अपनी धुरी पर धूमने की दैनिक गति को भी ये जानते थे। हे मांसाहारियों ! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, वब मनुष्यों का मांस भी छोडोंगे वा नहीं ?

आर्यसमाज के दस नियम


१. सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
२. ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
३. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना – पढाना और सुनना – सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
४. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
५. सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें।
६. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
७. सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।
८. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
९. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिये, किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
१०. सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें।


The Ten Principles are:
1. God is the origin and fountain head of all the truth and material knowledge prevalent in this world.
2. God is truth-being and bliss, formless, all powerful, just, merciful, birth less, infinite, without a beginning, incomparable, base for everything, spread everywhere, all knowing, deathless, disease less, fearless, sacred and creator of the universe. Our devotion is due only to Him.
3. The Veda is the book of all true knowledge. To read and understand the Veda is the supreme duty of all the Aryas.
4. One should always be ready to accept what is truth and reject what is untruth.
5. One should always act according to Dharma, that is, after deliberating over the truth or untruth of an act.
6. The aim of Arya Samaj is to work for the well being of the whole word, physical, spiritual and social.
7. One should treat everybody with love, respect and Dharma.
8. One should work for the eradication of non-knowledge (Avidya) and spread of knowledge (Vidya).
9. One should not be satisfied with one’s own progress but regard everyone’s progress as one’s own.
10. Individually, one is free to follow norms, which are beneficial to him or her. As a member of the society, one is bound by means of social and universal good.
These principles have a universal appeal. They are the basic concepts of good citizenship and morality. There is nothing sectarian in any of these principles. They are simple, straightforward, liberal and universal.

According to Vedas there are three things that are eternal:
God, the Soul and Prakriti (physical matter in the subatomic state)
(Rig Veda 1: 164: 20, 22 and 44, 10: 82: 7, Yajur Veda 40: 1, 40: 15, Atharva Veda 4: 35: 1, 10: 8: 2-4, Shvetashvatra Upanishad 1: 10).

God is the agentive cause for the creation of the universe, prakriti is the material cause of universe, and souls are the consumers for whose benefit the universe is created.
God is the Creator, the Supreme Spirit or Consciousness, and the Eternal Bliss.
On the other hand prakriti, while eternal, by itself is inert. Though, the soul is eternal and conscious (aware), it usually lacks bliss. The soul has a choice, it can aim towards reaching God—the Eternal Truth, the Supreme Consciousness and the Supreme Bliss and it-self acquire bliss, or it can be lost in the distractions of prakriti (universe) and remain unfulfilled and lacking in joy.

Details Are...

God is the agentive cause for the creation of the universe, prakriti is the material cause of universe, and souls are the consumers for whose benefit the universe is created.
God is the Creator, the Supreme Spirit or Consciousness, and the Eternal Bliss.
God is Sat-Chit-Änand (Sachidänand):
Sat = Eternally Exists, Eternal Truth Chit = Supreme Consciousness Änand = Supreme Bliss

The soul has a choice, it can aim towards reaching God—the Eternal Truth, the Supreme Consciousness and the Supreme Bliss and it-self acquire bliss, or it can be lost in the distractions of prakriti (universe) and remain unfulfilled and lacking in joy.
Soul is Sat-Chit:
Sat = Eternally Exists Chit = Conscious

On the other hand prakriti, while eternal, by itself is inert. Though, the soul is eternal and conscious (aware), it usually lacks bliss.
Prakriti is only Sat:
Sat = Eternally Exists

Please note that this belief in three eternals is based on the Vedas and Upanishads is also called Traitvad (three eternals) and in many ways is quite different than the commonly held views of the Hindu Religion based upon the Purana’s and/or Vedanta’s advaita—monism beliefs which state that Brahman—God and jiva(the soul) are identical and prakriti the physical matter(maya—an) illusion.